शब्द पर उद्धरण
वर्णों के मेल से बने
सार्थक वर्णसमुदाय को शब्द कहा जाता है। इनकी रचना ध्वनि और अर्थ के मेल से होती है। शब्द को ब्रहम भी कहा गया है। इस चयन में ‘शब्द’ शब्द पर बल रखती कविताओं का संकलन किया गया है।
अभिव्यक्ति के सारे माध्यम जहाँ निरस्त या समाप्त हो जाते हैं, शब्द वहाँ भी जीवित रहता है।
नाटक में शब्दों से मोह हो जाता है। यह फ़ालतू का मोह जानलेवा हो जाता है। अभिनेता के लिए भी, निर्देशक के लिए भी, यह बात मुझे रंजीत कपूर ने बताई थी।
शब्दों की शक्तियों का जितना ही अधिक बोध होगा अर्थबोध उतना ही सुगम्य होगा। इसके लिए पुरातन साहित्य का अनुशीलन तो करना ही चाहिए, समाज का व्यापक अनुभव भी प्राप्त करना चाहिए।
बहुत सारी क़लमों की स्याही सही शब्द लिखे जाने की प्रतीक्षा में रुलाई बनकर लीक हो जाती है।
शब्दों में अभिव्यक्ति अभ्यास के द्वारा होती है। यह सब एक निमिष में हो सकता है, इसको एक युग भी लग सकता है; कवि-कवि पर निर्भर है।
मेरी कविता की इच्छा और मेरी कविता की शब्दावली, मेरी अपनी इच्छा और मेरी अपनी शब्दावली है।
जो शब्द जितने लंबे समय से लोक-व्यवहार में रहता है, उस पर उतनी ही ज़्यादा मानवीय जीवन की ऐतिहासिक छाप पड़ती चली जाती है।
हँसो पर चुटकुलों से बचो, उनमें शब्द हैं।
विचार, अनुभूति और संवेदना—सबका संबंध शब्द से होता है और कविता शब्द है। शब्द—जो कवि के लिए सबसे रहस्यमय वस्तु है।
कॉन्फ्रेंस ‘‘शब्द’’ ‘‘सम्मेलन’’ से लगभग 10 गुना गरिमा वाला होता है, क्योंकि सम्मेलन छोटे पढ़ाने वालों का होता है और ‘‘सेमिनार तथा कॉन्फ्रेंस’’ बड़े पढ़ाने वालों का।
मुझे मानवीय शब्द की गरिमा में विश्वास है।
मुझे लगता है हमेशा दो पहलू होते है। और दो में से एक पहलू हमेशा कहे के परे चला जाता है। एक अकेला विलक्षण। जो आप हैं; जो आप किसी से कह नहीं सकते। और दूसरी तरफ़ वह जो आप कह सकते हैं। उन चीज़ों के बारे में हम कैसे जानते हैं जिनके बारे में हम बातें करते हैं। हम शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। शब्द कभी कुछ नहीं कहते, लेकिन हमारे पास कहने के लिए सिर्फ़ शब्द हैं।
शब्दों में श्रुति और दृश्य के एक संयोग की दरकार होती है, मानों शब्द और वर्ण का भी हँसता हुआ चेहरा होता है, मानों वर्णों में से कोई दौड़ता हुआ जाता है तो कोई स्थिर खड़ा रहता है।
शब्दों का व्याकरण से भी ऊपर सामाजिक संदर्भ होता है, जिसका अनुसंधान हर रचनाकार को अलग-अलग करना पड़ता है।
सार्थकता बराबर तप नहीं, शब्दाडम्बर बराबर पाप।
बस यही मायने रखता है कि पन्नों पर शब्द कैसे दिखते हैं।
मैं शब्द के अस्तित्व को लेकर चिंतित नहीं हूँ क्योंकि उसकी उच्चरित शक्ति में मुझे विश्वास है, पर यह ख़तरा ज़रूर देखता हूँ कि लिखित शब्द की पहुँच का दायरा कम हुआ है, यानी साहित्य का पाठक वर्ग सिकुड़ा है।
हमारे आस-पास लगभग तीस शब्द हमेशा रहते हैं। जैसे ‘धागा’ या फिर ‘प्रस्थान द्वार’।
शब्दों की शादी करते समय चौकन्ना रहना चाहिए।
हमारे शब्दों के बीच जो जगहें हैं, उनमें छिप कर रहता है सत्य और झूठ प्रकट होता है।
जिन शब्दों को हमने कहा नहीं, उनमें ही सबसे गूढ़ अर्थ छुपे हैं।
शब्द अपने चारों ओर की जड़ता को लेकर ही सत्य की ओर अग्रसर होना चाहता है, और यही उसका गौरव है
अर्थ कहाँ चले जाएँगे, जब शब्द भुला दिए जाएँगे।