
यह जगत का निजी अनुभव है कि आधी छटाँक-भर आचरण का जितना फल होता है उसका मन-भर भाषणों अथवा लेखों का नहीं होता।

भाषण अनेक बार हमारे आचरण की ख़ामियों का दर्पण होता है। बहुत बोलने वाला कदाचित् ही अपने कहे का पालन करता है।

प्रतिक्षण अनुभव लेता हूँ कि मौन सर्वोत्तम भाषण है। अगर बोलना ही चाहिए तो कम से कम बोलो। एक शब्द से चले तो दो नहीं।

भाषण की असलियत दिए जाने में है, लिए जाने में नहीं।
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दयार्द्र होकर दान करने से भी कहीं श्रेष्ठ है प्रसन्न मुख के साथ मधुर वचन व्यक्त करना।