
जलती हुई आग से सुवर्ण की पहचान होती है, सदाचार से सत्य पुरुष की, व्यवहार से श्रेष्ठ पुरुष की, भय प्राप्त पर शूर की, आर्थिक कठिनाई में धीर की और कठिन आपत्ति में शत्रु एवं मित्र की परीक्षा होती है।

धर्म विश्वास की अपेक्षा व्यवहार अधिक है।

संसार में जो लोग बड़े काम करने आते हैं, उनका व्यवहार हमारे समान साधारण लोगों के साथ यदि अक्षर-अक्षर न मिले, तो उन्हें दोष देना असंगत है, यहाँ तक कि अन्याय है।

मार्ग में चलते हुए इस प्रकार चल कि लोग तुझे सलाम न कर सकें और उनसे ऐसा व्यवहार कर कि वे तुझे देख कर न उठ खड़े हों। यदि मस्जिद में जाता है तो इस प्रकार जा कि लोग तुझे इमाम न बना लें।

मैं ऐसे किसी समय की कल्पना नहीं कर सकता जब पृथ्वी पर व्यवहार में एक ही धर्म होगा।

नम्र व्यवहार सबके लिए अच्छा है, पर उस में भी धनवानों के लिए तो अमूल्य धन के समान होता है।

व्यवहार में जो काम न दे, वह धर्म कैसे हो सकता है

जो योग का आचरण करता है, जिसका हृदय शुद्ध है, जिसने स्वयं को जीत लिया है, जो जितेंद्रिय है और जिसकी आत्मा सब प्राणियों की आत्मा बनी है, वह कर्म करता हुआ भी अलिप्त रहता है।

अपनी शक्ति के अनुसार उत्तम खाद्य पदार्थ देने, अच्छे बिछौने पर सुलाने, उबटन आदि लगाने, सदा प्रिय बोलने तथा पालन-पोषण करने और सर्वदा स्नेहपूर्ण व्यवहार के द्वारा माता-पिता पुत्र के प्रति जो उपकार करते हैं, उसका बदला सरलता से नहीं चुकाया जा सकता।

जो माता-पिता की आज्ञा मानता है, उनका हित चाहता है, उनके अनुकूल चलता है, तथा माता-पिता के प्रति पुत्रोचित व्यवहार करता है, वास्तव में वही पुत्र है।

यदि तदनुसार आचरण नहीं किया तो केवल कहने या पढ़ने से क्या लाभ?

न्यायप्रिय स्वभाव के लोगों के लिए क्रोध एक चेतावनी होता है, जिससे उन्हें अपने कथन और आचार की अच्छाई और बुराई को जाँचने और आगे के लिए सावधान हो जाने का मौक़ा मिलता है। इस कड़वी दवा से अक्सर अनुभव को शक्ति, दृष्टि को व्यापकता और चिंतन को सजगता प्राप्त होती है।

उपकारों को भूलना मनुष्य का स्वभाव है। अतः यदि हम दूसरों से कृतज्ञता की आशा करेंगे तो हमें व्यर्थ ही सर दर्द मोल लेना पड़ेगा।

व्यवहार में लाए जाने पर महान विचार ही महान कर्म बन जाते हैं।

कुलीन लोग स्नेह से व्याकुल होकर भी देशकाल के अनुरूप आचार का अभिनंदन करते हैं।

जो उदासीन रहने के कारण त्रिगुणों से चंचल नहीं होता और गुण ही अपना कार्य करते हैं, ऐसा मानकर ही जो स्वस्थ रहता है तथा कंपायमान नहीं होता, जो सुख-दुःख को समान मानता है, जो अपने में ही आनंदित रहता है, जो मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण को समान मानता है, जो प्रिय अथवा अप्रिय की प्राप्ति होने पर सम अवस्था में रहता है, जो धैर्यवान है, जिसको अपनी निंदा और स्तुति समान प्रिय होती है, जिसको अपने मान और अपमान समान लगते हैं, जो मित्र और शत्रु के साथ समभाव से व्यवहार करता है तथा जो सब कार्यारंभों को त्याग देता है, वही त्रिगुणातीत कहा जाता है।

व्यवहार में गंभीरता, वचन में गंभीरता और भावों में गंभीरता—इन तीन गंभीरताओं के साथ कृष्ण का स्मरण करें तो महामंगल मिलेगा।

हमारे समाज का सुधार हमारी अपनी भाषा से ही हो सकता है। हमारे व्यवहार में सफलता और उत्कृष्टता भी हमारी अपनी भाषा से हो जाएगी।

जनता का अर्थ-प्रेम की शिक्षा देकर उसे पशु बनाने की चेष्टा अनर्थ करेगी। उसमें ईश्वर भाव का, आत्मा का निवास न होगा तो सब लोग उस दया, सहानुभूति और प्रेम के उद्गम से अपरिचित हो जाएँगे जिससे आपका व्यवहार टिकाऊ होगा।


कवि केवल सृष्टि ही नहीं करता सृष्टि की रक्षा भी करता है। जो स्वभाव से ही सुंदर है उसे और भी सुंदर करके प्रकट करना जैसे उसका एक काम है, वैसे ही जो सुंदर नहीं है, उसे असुंदर के हाथ से बचा लेना भी उसका दूसरा काम है।

भाषण अनेक बार हमारे आचरण की ख़ामियों का दर्पण होता है। बहुत बोलने वाला कदाचित् ही अपने कहे का पालन करता है।

यह धारणा कि काव्य व्यवहार का बाधक है, उसके अनुशीलन से अकर्मण्यता आती है, ठीक नहीं। कविता तो भावप्रसार द्वारा कर्मण्य के लिए कर्मक्षेत्र का और विस्तार कर देती है।


आभार शब्द एक अहसास को प्रेरित करता है। यह अहसास मस्तिष्क को रसायनों के एक कॉकटेल से सुपरचार्ज करता है।

मनुष्य का व्यक्तित्व ऐसा नहीं होता कि वह सबसे टूटकर अलग जी सके।

पहले से कोई संबंध न होने पर भी जो मित्रता का व्यवहार करे वही बंधु, वही मित्र, वही सहारा और वही आश्रय है।

भय जब स्वभावगत हो जाता है, तब कायरता या भीरुता कहलाता है।

घोड़ा, शस्त्र, शास्त्र, वीणा, वाणी, पुरुष और स्त्री—ये पुरुष विशेष को प्राप्त होकर योग्य अयोग्य होते हैं अर्थात् इनके स्वामी जैसे इनका व्यवहार करते हैं वैसे ही हो जाते हैं।

सुसंस्कृत स्वभाव इस बात को जानकर परेशान होता है कि कोई उसके प्रति आभार मानता है किंतु विकृत स्वभाव यह जानकर परेशान होता है कि वह स्वयं किसी के प्रति आभारी है।

व्यवहार की छोटी-छोटी बातें ही व्यक्ति के चरित्र का दर्पण होती हैं, न कि लंबी-चौड़ी बातें।

स्वदेश ही नहीं समूचे विश्व का व्यवहार जिसके बल पर सुचारु रूप से चलता है, उसे ही धर्म कहते हैं।

सहज अनुकंपा से प्राणियों के साथ अन्न, वस्त्र, दान मान इत्यादि से प्रेमपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। यही सब का स्वधर्म है।

मैं बातें बड़ी सुंदर-सुंदर करता हूँ लेकिन मेरा आचार तथ्यरहित है।

व्यवहार में कोई भी व्यक्ति, समाज से हमेशा तटस्थ नहीं रह सकता।

यूरोप की जनता ईसाई कहलाती है लेकिन वह ईसा के आदेश को भूल गयी है। भले ही वह 'बाइबिल' पढ़े, भले ही वह हिब्रू का अभ्यास करे, लेकिन ईसा के आदेशानुसार वह आचरण नहीं करती। पश्चिम की हवा ईसा के आदेशों के विरुद्ध है। पश्चिम की जनता ईसा को भूल गई है।

बुरे स्वभाव के कारण प्राप्त क्लेश को कोई नहीं मिटा सकता, जैसे काजल का कलुष नहीं धोया जा सकता।

मैंने सुना है : ‘जिस आदर्श में व्यवहार का प्रयत्न न हो, वह फ़िज़ूल है, और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो वह भयंकर है।’

उनको देखते समय उनके दोष नहीं दिखते, और उनको देखते समय उनके निर्दोष व्यवहार नहीं दिखते।

जैसा बोले वैसा ही आचरण करे।

किसी भी व्यवहार के कारण गुरु अपमान के योग्य नहीं होता। जैसे माननीय गुरु हैं, वैसे तो माता-पिता भी नहीं हैं।


निर्लज्जता, लापरवाही, निर्दयता, किसी को साध कर न रखना... ये हैं मूढ़ के व्यवहार।

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