
संसार में जो लोग बड़े काम करने आते हैं, उनका व्यवहार हमारे समान साधारण लोगों के साथ यदि अक्षर-अक्षर न मिले, तो उन्हें दोष देना असंगत है, यहाँ तक कि अन्याय है।

धर्म विश्वास की अपेक्षा व्यवहार अधिक है।

मार्ग में चलते हुए इस प्रकार चल कि लोग तुझे सलाम न कर सकें और उनसे ऐसा व्यवहार कर कि वे तुझे देख कर न उठ खड़े हों। यदि मस्जिद में जाता है तो इस प्रकार जा कि लोग तुझे इमाम न बना लें।

मैं ऐसे किसी समय की कल्पना नहीं कर सकता जब पृथ्वी पर व्यवहार में एक ही धर्म होगा।

नम्र व्यवहार सबके लिए अच्छा है, पर उस में भी धनवानों के लिए तो अमूल्य धन के समान होता है।

व्यवहार में जो काम न दे, वह धर्म कैसे हो सकता है

सहज अनुकंपा से प्राणियों के साथ अन्न, वस्त्र, दान मान इत्यादि से प्रेमपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। यही सब का स्वधर्म है।
