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रवींद्रनाथ ठाकुर पर उद्धरण

भीतर के साथ बाहर का निश्चित विभाजन अगर बना रहे तो हमारा जीवन सुविहित, सुश्रृंखलित, सुसंपूर्ण हो जाता है, किंतु वही हमारे जीवन में नहीं हो पा रहा है।

रवींद्रनाथ टैगोर

अहं का स्वभाव होता है अपनी ओर खींचना, और आत्मा का स्वभाव होता है बाहर की तरफ़ देना—इसलिए दोनों के जुड़ जाने से एक भयंकर जटिलता की सृष्टि हो जाती है।

रवींद्रनाथ टैगोर

जगत से मन अपनी चीज़ संग्रह कर रहा है, उसी मन से विश्व-मानव-मन फिर अपनी चीज़ चुनकर, अपने लिए गढ़े ले रहा है।

रवींद्रनाथ टैगोर

संग्रहणीय वस्तु हाथ आते ही उसका उपयोग जानना, उसका प्रकृत परिचय प्राप्त करना, और जीवन के साथ-ही-साथ जीवन का आश्रयस्थल बनाते जाना—यही है रीतिमय शिक्षा।

रवींद्रनाथ टैगोर

कलावान् गुणीजन भी जहाँ पर वास्तव में गुणी होते हैं; वहाँ पर वे तपस्वी होते हैं, वहाँ यथेच्छाचार नहीं चल सकता, वहाँ चित्त की साधना और संयम—है ही है।

रवींद्रनाथ टैगोर

नियम साधना का लोभ भी कष्ट की मात्रा का हिसाब लगाकर आनंद पाता है। अगर कड़े बिछौने पर सोने से शुरू किया जाए; तो आगे चलकर मिट्टी पर बिछौना बिछाकर, फिर सिर्फ़ एक कंबल बिछाकर, फिर कंबल को भी छोड़कर निखहरी ज़मीन पर सोने का लोभ क्रमशः बढ़ता ही रहता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

भीतर को बाहर के आक्रमण से बचाओ।

रवींद्रनाथ टैगोर

हमारी यथार्थ अर्थवत्ता हमारे अपने बीच में नहीं है, वह समस्त जगत के मध्य फैली हुई है।

रवींद्रनाथ टैगोर

असंयम को अमंगल जानकर छोड़ने में जिनके मन में विद्रोह जागता है, उनसे वह कहना चाहता है कि उसे असुंदर जानकर अपनी इच्छा से छोड़ दो।

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असंगति जब हमारे मन के ऊपरी स्वर पर आघात करती है; तब हमको कौतुक जान पड़ता है, गहरे स्तर पर आघात करती है तो हमको दुःख होता है।

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अपने जीवन से मनुष्य को सबसे बड़ी शिक्षा यह लेनी चाहिए कि संसार में दुःख है, किंतु उसे सुख में बदलना उसके हाथ में है।

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परित्राण का अर्थ यह है कि व्यर्थता और असफलता से अपनी रक्षा करना, अपने भीतर सत्यरूपी जो रत्न छिपा हुआ है, उसका उद्धार करना।

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कविता-कहानी-नाटक के बाज़ार में जिन्हें समझदारों का राजपथ नहीं मिलता; वे आख़िर देहात में खेत की पगडंडियों पर चलते हैं, जहाँ किसी तरह का महसूल नहीं लगता।

रवींद्रनाथ टैगोर

साहित्य का विषय व्यक्तिगत होता है, श्रेणीगत नहीं। यहाँ पर मैं ‘व्यक्ति’ शब्द के धातुमूलक अर्थ पर ही ज़ोर देना चाहता हूँ।

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मुक्ति का अर्थ किसी विद्यमान वस्तु का विनाश करना नहीं है, बल्कि केवल अविद्यमान और सत्य मार्ग के अवरोधक कोहरे का निवारण करना है। जब अविद्या का यह अवरोध हट जाता है, तभी पलकें ऊपर उठ जाती हैं—पलकों का हटना आँखों की क्षति नहीं कहा जा सकता।

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इच्छा का यह जो सहज धर्म है कि वह दूसरे की इच्छा को चाहती है, केवल ज़ोर-ज़बरदस्ती पर ही उसका आनंद निर्भर नहीं है।

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साहित्य में विषयवस्तु निश्चेष्ट हो जाती है, यदि उसमें प्राण रहे।

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प्रकृति में प्रत्यक्ष की हम प्रतीति करते हैं, साहित्य और ललिल कला में अप्रत्यक्ष हमारे निकट प्रतीयमान होता है।

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सुख देखते ही तीनों लोकों में दुःख के चिन्ह लुप्त हो जाते हैं, एवं दुःख उपस्थित होते ही कहीं भी लेशमात्र भी सुख दिखाई नहीं देता।

रवींद्रनाथ टैगोर

मैं उनमें से नहीं हूँ जो नाम को केवल नाम समझते हैं।

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यह प्रायः देखा जाता है कि जो तत्कालीन और तत्स्थानीय होता है, वही अधिकांश लोगों के निकट सबसे प्रधान आसन अधिकृत कर लेता है।

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समाज में जब कोई प्रबल, संक्रामक भावना जाग उठती है तो वह किसी वेष्टन को नहीं मानती।

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रस-सामग्री से तो अशिक्षित रुचि भी, किसी-न-किसी तरह स्वाद प्राप्त कर लेती है।

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  • संबंधित विषय : रस

हमारे हृदय में ज्ञान, प्रेम और कर्म का जिस मात्रा में पूर्ण मिलन होता है, उसी मात्रा में हमारे हृदय में पूर्ण आनंद रहता है।

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ज्ञान, प्रेम और शक्ति—इन तीन धाराओं का जहाँ एक साथ संगम होता है, वहीं पर आनंदतीर्थ बन जाता है।

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हमें अपनी तीन अवस्थाएँ दिखाई देती हैं। तीनों ही बड़े स्तरों पर मानव जीवन का निर्माण कर डालती हैं। एक अवस्था है प्राकृतिक, दूसरी धार्मिक नैतिकता की और तीसरी होती है आध्यात्मिकता की।

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जगत के साथ मन का जो संबंध होता है, मन के साथ साहित्यकार की प्रतिभा का भी वही संबंध होता है।

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मनुष्य के पास केवल जगत-प्रकृति ही नहीं, समाज-प्रकृति नामक एक और आश्रय भी है। इस समाज के साथ मनुष्य का कौन-सा संबंध सत्य है—इस बात पर विचार करना चाहिए।

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हम सहज ही भूल जाते हैं कि जाति-निर्णय विज्ञान में होता है, जाति का विवरण इतिहास में होता है। साहित्य में जाति-विचार नहीं होता, वहाँ पर और सब-कुछ भूलकर व्यक्ति की प्रधानता स्वीकार कर लेनी होगी।

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अपव्यय और कष्ट जितना ही अधिक प्रयोजनहीन होता है; संचय और परिणामहीन, जय-लाभ का गौरव उतना ही अधिक जान पड़ता है।

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साहित्यकारों की श्रेष्ठ चेष्टा केवल वर्तमान काल के लिए नहीं होती, चिरकाल का मनुष्य-समाज ही उनका लक्ष्य होता है।

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चाहे साइंस हो, चाहे आर्ट हो—निरासक्त मन ही सर्वश्रेष्ठ वाहन है। यूरोप ने साइंस में वह पाया है, किंतु साहित्य में नहीं पाया।

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परिचय का अर्थ यही है कि जो चीज़ छोड़ने की है उसे छोड़कर, जो चीज़ लेने की है उसे ले लिया जाए।

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  • संबंधित विषय : चयन

जो सुखकर हैं उन्हें प्रणाम करो और जो दु:खकर हैं उन्हें भी प्रणाम करो, ऐसा होने पर ही तुम स्वास्थ्य लाभ करोगे, शक्ति लाभ करोगे—जो शिव हैं, जो शिवकर हैं, उन्हें ही प्रणाम करना होगा।

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जगत के ऊपर मन का कारख़ाना बैठा हुआ है और मन के ऊपर विश्वमन का कारख़ाना है—उसी ऊपरवाले तल्ले में साहित्य की उत्पत्ति होती है।

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संसार का चमत्कार यह नहीं है कि यहाँ कष्ट और बाधाएँ हैं, बल्कि इसमें है कि यहाँ व्यवस्था, सौंदर्य, आनंद, कल्याण और प्रेम का वास है।

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भीत तो मज़बूत होना चाहिए, नहीं तो वह सहारा नहीं दे सकती। जो कुछ धारण करता है, जो आकृति देता है, वह कठोर होता है।

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हमारा होना जितना बाधामुक्त और संपूर्ण होगा, हमारी क्रिया भी उतनी ही सुंदर और यथातथ्य, सटीक और सुविन्यस्त हो उठेगी।

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जिसके साथ हमारा सामान्य परिचय मात्र होता है, वह हमारे पास भले बैठा रहे; किंतु उसके और हमारे बीच समुद्र जैसा व्यवधान बना रहता है, वह होता है अचैतन्य का समुद्र, उदासीनता का समुद्र।

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अल्पवित्त वाला व्यक्ति अगर एक दिन के लिए अपना राजा का शौक पूरा करने जाए; तो वह दस दिन के लिए अपने को दीवालिया बना डालता है, उसके अलावा उसके पास और कोई उपाय नहीं रहता है।

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विज्ञान में सत्य-मिथ्या का विचार ही अंतिम विचार होता है। इसी कारण से वैज्ञानिक की अंतिम अपील, विचारक के व्यक्तिगत संस्कार के ऊपर प्रमाण में होती है।

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आधुनिक सभ्यता रूपी लक्ष्मी जिस पद्मासन पर बैठी हुई है, वह आसन ईंट-लकड़ी से बना हुआ आज का शहर है।

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उत्सव की तो रचना हम लोग कर नहीं सकते हैं, अगर सुयोग मिले तभी हम उत्सव का आविष्कार कर सकते हैं।

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भावरस का आनंद लेने के लिए हमारे हृदय में एक लोक सदा बना ही रहता है।

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जगत में ईश्वर से हमें अपना कोई विशेष संबंध बना लेना होगा। कोई एक विशेष सुर बजाते रहना होगा।

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हमारी सारी क्रियाओं को जगाए रखने का भार सबसे पहले बाह्य-संसार पर ही आधारित होता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

ज्ञान की भित्ति अगर कठोर होती, तो वह एक बेतुका स्वप्न बन जाता और आनंद की भित्ति अगर कठोर होती, तो वह सरासर पागलपन बन जाता।

रवींद्रनाथ टैगोर

प्रतिदिन प्रातःकाल हम जो यह उपासना कर रहे हैं, यदि उसमें थोड़ी भी सत्यता हो, तो हम उसकी सहायता से प्रतिदिन धीरे-धीरे त्याग के लिए प्रस्तुत होते रहते हैं।

रवींद्रनाथ टैगोर

आध्यात्मिक गृहस्थी में हमें कल के कारण आज के बारे में नहीं सोचना चाहिए।

रवींद्रनाथ टैगोर

प्रेम का एक प्रधान लक्षण यह होता है कि प्रेम आनंदपूर्वक दुःख को स्वीकार कर लेता है, क्योंकि दुःख के द्वारा, त्याग के द्वारा उसे पूर्ण सार्थकता मिलती है।

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