सूरदास के काव्य में कृष्ण से राधा और दूसरी गोपियों का प्रेम, सामंती नैतिकता के बंधनों से मुक्त प्रेम है।
भक्त कवियों की दृष्टि में मानुष-सत्य के ऊपर कुछ भी नहीं है—न कुल, न जाति, न धर्म, न संप्रदाय, न स्त्री-पुरुष का भेद, न किसी शास्त्र का भय और न लोक का भ्रम।
मुक्ति का अर्थ किसी विद्यमान वस्तु का विनाश करना नहीं है, बल्कि केवल अविद्यमान और सत्य मार्ग के अवरोधक कोहरे का निवारण करना है। जब अविद्या का यह अवरोध हट जाता है, तभी पलकें ऊपर उठ जाती हैं—पलकों का हटना आँखों की क्षति नहीं कहा जा सकता।
एक सुसंस्कृत दिमाग़ को अपने दरवाज़े और खिड़कियाँ खुली रखनी चाहिए।
भक्तिकाव्य के बाहर भी अधिकांशतः प्रेम की वही कविता महत्त्वपूर्ण है, जो सम-विषम की रूढ़ि से मुक्त है।
कबीर शास्त्रीय ज्ञान के बोझ से मुक्त है।
उत्पीड़ितों के लिए निहायत ज़रूरी है कि वे अपनी मुक्ति की सभी अवस्थाओं में, स्वयं को पूर्णतर मनुष्य बनने के सत्तामूलक तथा ऐतिहासिक कार्य में संलग्न मनुष्यों के रूप में देखें।
उत्पीड़ित लोग स्वयं पर भरोसा करना तभी शुरू करते हैं, जब वे उत्पीड़क को खोज लेते हैं और अपनी मुक्ति के लिए संगठित संघर्ष करने लगते हैं।
कर्तव्य तो एक व्यर्थ की बकवास है। मैं मुक्त हूँ—मेरे सारे बंधन कट चुके हैं। यह शरीर कहीं भी रहे या न रहे, इसकी मुझे क्या परवाह।
‘कर्तव्य’ में मैं विश्वासी नहीं हूँ, कर्तव्य तो संसारियों के लिए एक अभिशाप है—संन्यासियों का कोई कर्तव्य नहीं है।
सब पर समान स्नेह रखना अत्यंत कठिन है, किंतु उसके बिना मुक्ति नहीं मिल सकती।
हम जिससे मुक्त होकर बाहर निकलकर नहीं आएँगे, उसे हम नहीं प्राप्त कर पाएँगे।
हमारे जीवन की एकमात्र साधना यही है कि हमारी आत्मा का जो स्वभाव है, उसी को हम बाधा मुक्त बना लें।
जो बंधन के कारण हैं, वे बंधन के मार्ग हैं। उनका नाश करने वाली आत्मा की शुद्ध अवस्था मोक्षमार्ग है कि जिससे भवभ्रमण का अंत होता है।
मुक्ति एक प्रसव है और यह प्रसव पीड़ादायक है।
अगर मैं कहूँ; मनुष्य मुक्ति चाहता है, तो यह मिथ्या बात होगी। मनुष्य मुक्ति की अपेक्षा बहुत सारी चीज़ें चाहता है। मनुष्य अधीन होना चाहता है।
मनुष्य का इतिहास साक्षी है कि विराग मनुष्य की आत्मा में बहुत गहरा बसा हुआ है।
आत्मिक साधना का एक अंग है, जड़ विश्व के अत्याचार से आत्मा को मुक्त करना।
मुक्त दु:ख अभिनव प्रज्ञा देता है। उसे पुराने अनुभव के भारी संपुट में बंद करने से उसकी शक्ति कम हो जाती है।
संकीर्णतावाद किसी भी क्षेत्र का हो, मानवमुक्ति में बाधक होता है।
जहाँ एक ओर हर व्यक्ति; इस दुनिया में अपना पूरा जीवन लगा कर कुछ बनना चाहता है और फिर उसके मरने के बाद जो कुछ बचता है, वहीं दूसरी ओर एक सच्चा सूफ़ी इस दुनिया से कुछ नहीं चाहता—इस जीवन से हमें शून्य महत्वाकांक्षाएँ रखनी चाहिए।
सतिगुरु जीव को मुक्ति प्रदान करता है और परमात्मा के ध्यान में लगाता है। इस प्रकार हरिपद को जानकर जीव प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं।
जीवन का जाल कभी-कभी बहुत जटिल हो जाता है; संसार का प्रवाह कभी-कभी प्रलय की भँवर में हमें खींचता रहता है, तब मनुष्य व्याकुल होकर कह उठता है—मुक्ति दो, मुक्तिदाता, मुझे मुक्ति दो!
हम वह नहीं हैं जो हम बनना चाहते हैं, लेकिन कुछ न पाने की हमारी इच्छा हमें आगे बढ़ने की क्षमता देती है।
अहं अपनी मृत्यु के द्वारा आत्मा के अमरत्व को व्यक्त करता है।
त्याग के द्वारा हम मुक्त होते हैं।
जिन समाजों में नारी अपनी मुक्ति के लिए छटपटा रही थी, उनमें द्रौपदी को अपने लिए प्रेरणा और मुक्ति का प्रतीक माना गया।
विज्ञान की साधना जिस प्रकार हमारे प्राकृतिक ज्ञान को बँधनों से मुक्त कर देती है, वैसे ही मंगल की साधना हमारे प्रेम, हमारे आनंद के बँधनों से मुक्त कर देती है।
बाहर भटकते हुए जीव को गुरु द्वारा ही हृदय-महल में वापस लाया जा सकता है, और मिलाने वाला प्रभु स्वयं ही मिला देता है।
आत्मा की अपनी शुद्धता मोक्ष है। जिससे वह शुद्धता प्रकट होती है, वह मोक्षमार्ग है।
मुक्ति व्यापक तथा व्यापकतर क्रियाशीलता का दूसरा नाम है।
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क़ाज़ी, ब्राह्मण एवं योगी ये तीनों ही जीवों हेतु विनाश का बंधन हैं।
छुट्टा हो जाने पर भी बहुत सुख मिलता हो, ऐसा कहना कठिन है।
शाप हमें यातना देता है, हमें मांजता है और इस योग्य बनाता है कि हम शुद्ध होकर शाप से उबरें। इसीलिए शाप पवित्र है और शिरोधार्य है।
अब और इंतज़ार न करें। समुद्र में गोता लगाएँ, ख़ुद को छोड़ दें और समुद्र को अपना होने दें।
अगर हम कर्त्ता होना चाहते हैं तो हमें मुक्त होना होगा।
उत्पीड़ितों का महान मानवतावादी और ऐतिहासिक कार्यभार है : स्वयं को और साथ ही अपने उत्पीड़कों को भी मुक्त करना।