ग़ुलामी पर उद्धरण
ग़ुलामी मनुष्य की स्वायत्तता
और स्वाधीनता का संक्रमण करती उसके नैसर्गिक विकास का मार्ग अवरुद्ध करती है। प्रत्येक भाषा-समाज ने दासता, बंदगी, पराधीनता, महकूमी की इस स्थिति की मुख़ालफ़त की है जहाँ कविता ने प्रतिनिधि संवाद का दायित्व निभाया है।

नीग्रो अपनी हीनता से ग़ुलाम है, श्वेत व्यक्ति अपनी श्रेष्ठता से ग़ुलाम है… दोनों ही एक विक्षिप्त उन्मुखीकरण के अनुसार व्यवहार करते हैं।

अराजकता का इलाज स्वतंत्रता है न कि दासता, वैसे ही जैसे अंधविश्वास का सच्चा इलाज नास्तिकता नहीं, धर्म है।

क्या मैं अपने ही देश में ग़ुलामी करने के लिए ज़िंदा रहूँ? नहीं, ऐसी ज़िंदगी से मर जाना अच्छा। इससे अच्छी मौत मुमकिन नहीं।

जो व्यक्ति स्वयं अपने सम्मान का ख़्याल नहीं करता वह दास ही बन जाता है।

ग़ुलाम का न दीन है न धर्म है, ग़ुलाम के न रहीम है, न राम हैं।

हम सभी कम या अधिक अभिमतों के दास हैं।

यदि हम मातृभाषा की उन्नति नहीं कर सके और हमारा यह सिद्वांत रहे कि अँग्रेज़ी के ज़रिए ही हम अपने ऊँचे विचार प्रकट कर सकते हैं और उनका विकास कर सकते हैं तो इसमें ज़रा भी शक नहीं कि हम सदा के लिए ग़ुलाम बने रहेंगे। जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तब वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाए जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल सकेगा।


जब कभी मैं किसी को दासता का पक्ष समर्थन करते देखता हूँ तो मेरे मन में स्वयं उसी व्यक्ति पर उसकी परीक्षा किए जाने की प्रबल प्रेरणा होती है।

हमेशा की तरह आज भी लोगों को दो समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है—ग़ुलाम और आज़ाद। वह इंसान जिसके दिन का दो-तिहाई भाग उसका अपना नहीं है वह ग़ुलाम है, चाहे वह राजनेता हो, व्यवसायी हो, अधिकारी हो या कोई विद्वान हो।

विडंबना दासों की महिमा है।