
आवश्यकताओं की निर्विरोध और निर्बंध पूर्ति ही मनुष्य जीवन की स्वतंत्रता है।

नारी की आर्थिक परवशता और उसी स्वतंत्रता को विच्छिन करके देखना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है।

अराजकता का इलाज स्वतंत्रता है न कि दासता, वैसे ही जैसे अंधविश्वास का सच्चा इलाज नास्तिकता नहीं, धर्म है।

नारी जब अपनी उस स्वतंत्र स्थिति को प्राप्त कर लेगी तब एकनिष्ठता का दावा पुरुष के हिस्से में भी उसी अनुपात से आयेगा जितना नारी के लिए है।

लड़ते हुए मर जाना जीत है, धर्म है। लड़ने से भागना पराधीनता है, दीनता है। शुद्ध क्षत्रियत्व के बिना शुद्ध स्वाधीनता असंभव है।

जिस प्रकार स्वच्छंद समाज का स्वप्न अंग्रेज कवि शेली देखा करते थे, उसी प्रकार का यह समाज सूर ने चित्रित किया है।

मनुष्य की अचेतन क्रिया की यंत्रवत कारीगरी और यांत्रिक साधन ही आगे चलकर स्वतंत्र कलाओं में परिणत होते गए।

भारत सदा स्वाधीन रहा है। आज भी हम स्वाधीन हैं। पैंतीस करोड़ भारतवासी विश्व विजय करके रहेंगे। भारत युग-पुरुष श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्धदेव, शंकरदेव आदि की पवित्र जन्मभूमि है और मानव मात्र की ज्ञान-दायिनी भी है।

स्वातंत्र्य-महत्ता का जिसमें जितना ऊँचा और प्रखर बोध होता है उसी का व्यक्तित्व अनुशासन की पुष्ट भित्ति पर खड़ा होता है।

स्वातंत्र्य की सुरक्षा और संवर्द्धन के लिए भी आत्मानुशासन पहली शर्त है।

समय-समय पर झुँड से अलग होना महत्वपूर्ण है।
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कलाकार स्वतंत्रता इसलिए चाहते हैं कि उनकी संवेदनाओं और अनुभूतियों का क्षेत्र ख़ूब विस्तीर्ण हो सके।

स्वाधीनता का वृक्ष समय-समय पर देशभक्तों तथा अत्याचारियों के रक्त से अवश्य सींचा जाना चाहिए। यह इसकी प्राकृतिक खाद है।

मैं मानता हूँ कि स्वतंत्र निर्णय लेकर जीने में निचुड़ना ज़रूरी होता है।

प्रेम और स्वाधीनता के बीच जो द्वंद्व देखा जाता है, वह मोह और प्रेम के बीच फ़र्क़ न करने के कारण पैदा होता है।


आज हम हिंदुस्तान की पूरी आज़ादी चाहते हैं।

आर्थिक रूप से पूर्णतया स्वतंत्र हुए बिना नारी अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त नहीं कर सकती, यह निर्विवाद रूप से सही है।


आत्मानुशासन की सजगता-सक्रियता उसी में दिखाई पड़ती है जो स्वातंत्र्य का सही मूल्य समझता है।