अभाव पर विजय पाना ही जीवन की सफलता है। उसे स्वीकार करके उसकी ग़ुलामी करना ही कायरपन है।
संसार में जितनी बड़ी-बड़ी जीतें हुई हैं, बड़े-बड़े आक्रमण हुए हैं, सबको महान बनाया है माताओं, बहिनों और पत्नियों के त्याग ने। किस युद्ध में कितने पुरुषों ने रक्त दिया—यह इतिहास में लिखा हुआ है, लेकिन उसके समीप में यह नहीं लिखा है कि कितनी स्त्रियों ने अपना सुहाग दान किया, कितनी माताओं ने कलेजा निकाल कर दिया, कितनी बहिनों ने सेवाएँ अर्पित की।
पृथ्वी स्वयं इस नए जीवन को जन्म दे रही है और सारे प्राणी इस आनेवाले जीवन की विजय चाह रहे हैं। अब चाहे रक्त की नदियाँ बहें या रक्त के सागर भर जाएँ, परंतु इस नई ज्योति को कोई बुझा नहीं सकता।
श्रृंगार जिनका प्रधान है, ऐसे काम के मित्रगण नारी को जीतने से जीत लिए जाते हैं।
जब कोई पराक्रमी अपने बल से अपने शत्रुओं को जीत लेता है तो उसका प्रणाम भी उसकी कीर्ति ही बढ़ाता है।
लड़ते हुए मर जाना जीत है, धर्म है। लड़ने से भागना पराधीनता है, दीनता है। शुद्ध क्षत्रियत्व के बिना शुद्ध स्वाधीनता असंभव है।
काम पर विजय प्राप्त करने का प्रमुख उपाय है सब स्त्रियों को मातृरूप में देखना और स्त्रियों जैसे दुर्गा, काली, भवानी का चिंतन करना। स्त्री-मूर्ति में भगवान या गुरु का चिंतन करने से मनुष्य शनैः शनैः सब स्त्रियों में भगवान के दर्शन करना सीखता है। उस अवस्था में पहुँचने पर मनुष्य निष्काम हो जाता है। इसीलिए महाशक्ति को रूप देते समय हमारे पूर्वजों ने स्त्री मूर्ति की कल्पना की है। व्यावहारिक जीवन में सब स्त्रियों को माँ के रूप में सोचते-सोचते मन शनैः शनैः पवित्र हो जाता है।
संसार में जन्मा मनुष्य, विद्वान और बलवान होने पर भी, मृत्यु को न जीत सकता है, न जीत सका है, और न जीत सकेगा।
भीष्म समाप्त हो गए, द्रोण मारे गए, कर्ण का भी नाश हो गया। अब पांडवों को शल्य जीत लेगा ऐसी आशा है। हे राजन्! आशा बड़ी बलवती होती है।
विजय की इच्छा वाले पुरुष को यह 'जय' नामक इतिहास अवश्य सुनना चाहिए।
जीतने या हारने का तरीक़ा क्या रहा—यह ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बात है, न कि जीत या हार का परिणाम। वाजिब रास्ते पर चलते हुए हार जाना बेहतर है, बजाए ग़लत राह पर चलकर जीत हासिल करना।
बुद्धिमान क्रोध के वेग को जीत लेते हैं तथा क्षुद्र लोग क्रोध से तत्काल ही पराजित हो जाते हैं।
जिसने अपने आपको जीत लिया, वह स्वयं अपना बंधु है। परंतु जिसने अपने आपको नहीं जीता, वह स्वयं अपने शत्रुत्व में शत्रुवत बर्तता है।
लोकतंत्र में हमें जीतना तो आना ही चाहिए, साथ ही गरिमा के साथ हार को स्वीकार करना भी आना चाहिए।
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कोई भी मनुष्य कभी बुढ़ापे और मौत को लाँघ नहींसकता, भले ही वह समुद्रपर्यंत इस सारी पृथ्वी पर विजय पा चुका हो।
तपस्या में उमंग सहित लीन व्यक्ति के लिए यम पर विजय प्राप्त करना भी सम्भव है।
तुम्हारा हर काम और हर खेल मग़रिबी (पश्चिमी) है, तुम हारे तो क्या और जीते तो क्या! बल्कि दुःख तो ये है कि तुम उनकी नक़ल उतारने में कभी-कभी जीत भी जाते हो।
या तो युद्ध में मरकर स्वर्ग प्राप्त करोगे अथवा जीत कर पृथ्वी को भोगोगे।
विजय-तृष्णा का अंत पराभव में होता है।
'सूचना के अधिकार' को एक तरह की विजय का प्रतीक मानना संभव है, भले यह स्पष्ट नहीं है कि किसने किस पर विजय पाई है। वैसे भी विजय एक घटना होती है, जय की तरह सिर्फ़ एक भाव नहीं जो बना रह सके।
भारत सदा स्वाधीन रहा है। आज भी हम स्वाधीन हैं। पैंतीस करोड़ भारतवासी विश्व विजय करके रहेंगे। भारत युग-पुरुष श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्धदेव, शंकरदेव आदि की पवित्र जन्मभूमि है और मानव मात्र की ज्ञान-दायिनी भी है।
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मानव जन्मा ही इसलिए है कि हे मृत्यु! तुम पर विजय पा सके।
जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धर अर्जुन हैं, वहाँ श्री, विजय, वैभव और ध्रुवनीति रहेंगे, यह मेरा मत है।
निराश होना खिलाड़ियों के धर्म के विरुद्ध है। अबकी हार हुई तो फिर कभी जीत होगी।
सभी राजा राजकुमारी को उसी प्रकार चाहते हैं, जिस प्रकार मल्ल लोग विजय-पताका को चाहा करते हैं।
कल (विगत) वापस लौटकर हमारा होने वाला नहीं है परन्तु भविष्य हमारा है, चाहे हम उसे हारें या जीतें।
यह वर्चस्व की व्यवस्था की अंतिम जीत है, जब वर्चस्व वाले इसके गुणों का गान करना शुरू करते हैं।
आप जीवन से जीत नहीं सकते हैं।
हम सब यहाँ तक कि विजेता भी परास्त हो जाएँगे। हमें यह आना चाहिए कि विजय के समय किस तरह का व्यवहार करना चाहिए और हार के समय किस तरह का। वह समाज जो नहीं जानता कि हार क्या चीज़ होती है, कभी भी वयस्क नहीं होता।
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