
लड़ते हुए मर जाना जीत है, धर्म है। लड़ने से भागना पराधीनता है, दीनता है। शुद्ध क्षत्रियत्व के बिना शुद्ध स्वाधीनता असंभव है।

धर्म-युद्ध से बढ़कर अन्य कल्याणकारक कर्त्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं है।

क्षत्रिय युद्ध में मारा जाए तो वह शोक के योग्य नहीं है, यह निश्चित बात है।

सभी लोग हिंसा का त्याग कर दें तो फिर क्षात्रधर्म रहता ही कहाँ है? और यदि क्षात्रधर्म नष्ट हो जाता है तो जनता का कोई नाता नहीं रहेगा।


वीर क्षत्रिय को अपनी प्रतिज्ञा शिथिल करना ठीक नहीं है।