माँ पर उद्धरण
किसी कवि ने ‘माँ’ शब्द
को कोई शब्द नहीं, ‘ॐ’ समान ही एक विराट-आदिम-अलौकिक ध्वनि कहा है। प्रस्तुत चयन में उन कविताओं का संकलन किया गया है, जिनमें माँ आई है—अपनी विविध छवियों, ध्वनियों और स्थितियों के साथ।

याद रखो : प्यार एकदम बकवास है। सच्चा प्यार सिर्फ़ माँ और बच्चे के बीच होता है।

अद्वैत सिद्धांत ही हमारे लिए माँ का दूध है। जन्म से ही हम द्वेष, भेदबुद्धि और अहं से रहित हैं।

नारी केवल माता है, और इसके उपरांत वह जो कुछ है, वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र। मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान विजय है। एक शब्द में उसे लय कहूँगा—जीवन के व्यक्तित्व का और नारीत्व का भी।

सहस्रों माता-पिता और सैकड़ों पुत्र व पत्नियाँ युग-युग में हुए। सदैव के लिए वे किसके हुए और आप किसके हैं?

समस्या हमेशा बच्चों की माँ या मंत्री की पत्नी होने में और—कभी भी—जो हो वह नहीं होने में होती है।

देशभक्त, जननी का सच्चा पुत्र है।

हे राजन्! साध्वी स्त्रियाँ 'महाभाग्यशालिनी होती हैं तथा संसार की माता समझी जाती हैं। वे अपने पतिव्रत के प्रभाव से वन और काननों सहित इस पृथ्वी को धारण करती हैं।

माता-पिता से वंचित हो जाना—क्या स्वतंत्रता वहीं से शुरू होती है?

पुरुष निर्दयी है, माना, लेकिन है तो इन्हीं माताओं का अंश, क्यों माता ने पुत्र को ऐसी शिक्षा नहीं दी कि वह माता या स्त्री-जाति की पूजा करता?

स्त्री किसी भी अवस्था की क्यों न हो, प्रकृति से माता है और पुरुष किसी भी अवस्था का क्यों न हो, प्रकृति से बालक है।


स्त्री में माँ का रूप ही सत्य, वात्सल्य ही शिव और ममता ही सुंदर है।

कठोर से कठोर हृदय में भी मातृस्नेह की कोमल पत्तियाँ संचित होती हैं।

अपनी शक्ति के अनुसार उत्तम खाद्य पदार्थ देने, अच्छे बिछौने पर सुलाने, उबटन आदि लगाने, सदा प्रिय बोलने तथा पालन-पोषण करने और सर्वदा स्नेहपूर्ण व्यवहार के द्वारा माता-पिता पुत्र के प्रति जो उपकार करते हैं, उसका बदला सरलता से नहीं चुकाया जा सकता।

न देने पर (कन्यादान न करने से) तो लज्जा आती है और विवाह कर देने पर मन दुखी होता है। इस प्रकार धर्म और स्नेह के बीच में पड़कर माताओं को बड़ा कष्ट होता है।


माता का गौरव पृथ्वी से भी अधिक हैं। पिता आकाश से भी ऊँचा है।

वेद से बड़ा शास्त्र नहीं है, माता के समान गुरु नहीं है, धर्म से बड़ा लाभ नहीं है तथा उपासना से बड़ी तपस्या नहीं है।

हे माँ! तुममें ही कामधेनु की सामर्थ्य है। तुम मंगलधाम हो, तपस्वियों का अद्वैत हो। तुममें सागर की गंभीरता है, पृथ्वी की उदारता है। तुम्हारे नेत्रों में शांत चंद्रमा का तेज़ है और हृदय में मेघमालाओं का सघन वात्सल्य। हे मां! इन सब गुणों का वास तुम में ही है

जो माता-पिता की आज्ञा मानता है, उनका हित चाहता है, उनके अनुकूल चलता है, तथा माता-पिता के प्रति पुत्रोचित व्यवहार करता है, वास्तव में वही पुत्र है।

गुणवानों की गणना के आरंभ में खडिया जिसका नाम गौरवपूर्वक नहीं लिखती, ऐसे पुत्र से यदि माता पुत्रवती बनती है, तो वंध्या कैसी होगी?

माताएँ ही सब संसार को उठा सकती हैं। माताएँ ही देश को उठा या गिरा सकती हैं। माताएँ ही प्रकृति के ज्वार में उतार और प्रवाह ला सकती हैं। महापुरुष सदा ही श्रेष्ठ माताओं के पुत्र हुआ करते हैं।

जिस तरह माँ अपने बेटे को हमेशा दुबला ही समझती है, उसी तरह बाप भी बेटे को हमेशा नादान समझा करता है। यह उनकी ममता है, बुरा मानने की बात नहीं है।

जो माता पिता बिना अनुमति के अपने बालकों के पत्र पढ़ने की अच्छा रखते हैं, वे माता-पिता नहीं बल्कि ज़ालिम हैं।

पुत्र रूप एक जन और माता रूप भूमि के मिलन से ही देश की सृष्टि होती है।

संपूर्ण पृथ्वी ही माँ का खप्पर है। अखिल विश्व ब्रह्मांड ही सर्वव्यापिनी, सर्वशक्तिमती, सृष्टि और मरण की क्रीड़ा में निरत माँ भवानी का मंदिर है।

माता के रहते मनुष्य को कभी चिंता नहीं होती, बुढ़ापा से अपनी ओर नहीं खींचता। जो अपनी माँ को पुकारता हुआ घर में आता है, वह निर्धन होने पर भी मानो माता अन्नपूर्णा के पास चला जाता है।

मैं माता पिता की तुलना में निंदक का अधिक स्नेह मानता हूँ। विचार करके देखिए—माता पिता तो हमारे मलमूत्र को हाथ से धोते हैं, किंतु निंदक तो जीभ से हमारे मलमूत्र को धोते हैं।

पत्नी का प्रेम अधिक होता परंतु वह स्वार्थ के मैल से युक्त होता है। माता की ममता निर्मल होती है क्योंकि रूप, द्रव्य, गुण आदि के न होने पर भी माँ की ममता बनी रहती है।

माताएँ ही भविष्य के विषय में विचार कर सकती हैं क्योंकि वे अपनी संतानों में भविष्य को जन्म देती हैं।

मातृभाषा का अनादर माँ के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अपमान करता है वह स्वदेशभक्त कहलाने लायक नहीं।

जब तक माता जीवित रहती है, मनुष्य सनाथ रहता है और उसके न रहने पर वह अनाथ हो जाता है।

मैं इस जगत् का माता, पिता, धारणकर्ता, पितामह, ज्ञेय, पवित्र वस्तु, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद हूँ। मैं अंतिम गति, पोषणकर्ता, स्वामी, साक्षी, निवासस्थान, शरण जाने योग्य, मित्र, उत्पत्तिकर्ता, लयकर्ता, मध्य की अवस्थिति, भंडार और अविनाशी बीज हूँ।

मनुष्य जीवन में एक स्थान ऐसा चाहता है जहाँ तर्क, विचार और विवेचना न रहे, रहे केवल श्रद्धा। संभवतः इसी कारण माँ का सृजन हुआ होगा।

गौरव में उपाध्याय दस आचार्यों से बड़ा, पिता दस उपाध्यायों से बड़ा और माता दस पिताओं से बड़ी है। माता अपने गौरव से सभी पृथ्वी को भी तिरस्कृत कर देती है। अतः माता के समान कोई दूसरा गुरु नहीं है।

जननी की शक्ति संसार में सबसे महान है।

हम माँ का स्तनपान करके बड़े होते हैं, इसलिए माँ के उपदेश और शिक्षा जितना प्रभाव डाल सकते हैं, उतना अन्य बातें नहीं।

जो मातृभाषा की अवगणना करता है, वह अपनी माता करता है।

पुत्र के लिए माताओं का हस्त-स्पर्श प्यासे के लिए जल-धारा के समान होता है।

हे जन्मभूमि! हम उन आगामी वर्षों में अपना प्रेम और कठोर परिश्रम तुझे अर्पित करते हैं जब हम बड़े होकर अपनी जाति में पुरुषों और स्त्रियों के रूप में अपना स्थान ग्रहण करेंगे।

अज्ञान प्रशंसा की जननी है।

पुत्र असमर्थ हो या समर्थ, दुर्बल हो या हृष्ट-पुष्ट, माता उसका पालन करती ही है। माता के सिवा कोई दूसरा विधिपूर्वक पुत्र का पालन नहीं कर सकता।

जननी सदैव जननी है, जीवित वस्तुओं में पवित्रतम।

मैं जो कुछ भी हूँ या होने की आशा करता हूँ, उसका श्रेय मेरी दिव्य माता को है।

जीव-जगत् की सृष्टि करने वाले का सबसे श्रेष्ठ दान माता का स्नेह है।


माता के हृदय से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है।

हम अपने माता-पिता को अपने असली अपमानों के कहीं आस-पास भी फटकने नहीं दे सकते हैं।

मैं जो कुछ भी हूँ, मातृ-निर्मित हूँ।

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