चाँद पर उद्धरण
चाँद मनुष्य का आदिम
सहयात्री है जो रात्रि-स्याह के सुख-दुःख में उसका संगी-साथी हो जाता है। प्रेमिल बिंबों-प्रतीकों के साथ ही किसी कवि की ही कल्पना ने उसे देवत्व तक सौंप दिया है।

और वह चाँद को देखता है—गतिहीन प्रकाश से भरे बर्फ़ के गोल टुकड़े की तरह।


निर्मल चंद्रमा पर पड़ी पृथ्वी की छाया को लोग चंद्रमा का कलंक कहकर उसे बदनाम करते हैं।

चंद्रमा, सूरज, तारे, आकाश, घर की चीज़ों की तरह थे। चंद्रमा सूरज शाश्वत होने के बाद भी इधर-उधर होते थे।

हे माँ! तुममें ही कामधेनु की सामर्थ्य है। तुम मंगलधाम हो, तपस्वियों का अद्वैत हो। तुममें सागर की गंभीरता है, पृथ्वी की उदारता है। तुम्हारे नेत्रों में शांत चंद्रमा का तेज़ है और हृदय में मेघमालाओं का सघन वात्सल्य। हे मां! इन सब गुणों का वास तुम में ही है

लोक में अतिशय नवीन चंद्रकला आदि पदार्थ जयशील हैं। स्वभाव से सुंदर और भी पदार्थ हैं जो मन को प्रसन्न करते हैं परंतु जो यह नेत्र चंद्रिका लोक में मेरी दृष्टि में आई हैं, जन्म में एक वही महोत्सव रूप है।

साथ निवास करने वाले दुष्टों में जल तथा कमल के समान मित्रता का अभाव ही रहता है। सज्जनों के दूर रहने पर भी कुमुद और चंद्रमा के समान प्रेम होता है।

वह तुम हो जो चाँद का हमेशा से मतलब था और सूरज जो हमेशा गाएगा, वह तुम ही हो।

चंद्रमा के प्रकाश द्वारा प्रशंसा किए जाने पर किसी की छाया जीवन से बड़ी हो जाती है।

मुझे चंद्रमा आकाश में गोल कटी हुई खिड़की की तरह लगता था जिससे आकाश की आड़ में छुपी हुई दुनिया का उजाला आता था।

