पृथ्वी पर उद्धरण
पृथ्वी, दुनिया, जगत।
हमारे रहने की जगह। यह भी कह सकते हैं कि यह है हमारे अस्तित्व का गोल चबूतरा! प्रस्तुत चयन में पृथ्वी को कविता-प्रसंग में उतारती अभिव्यक्तियों का संकलन किया गया है।
मनुष्य की रचना प्रकृति ने उसके ‘स्व’ के लिए की ही नहीं है।
प्रलय-पूर्व की देव-संस्कृति, क्यों और कैसे विनष्ट हुई इस आधारभूत एवं तात्विक समस्या को जब तक नहीं सुलझाया जाता, तब तक मनुष्यता और इतिहास के बारे में प्रतिपादित सारे आधुनिक सिद्धांत नितांत अवैज्ञानिक हैं।
पृथ्वी में जो कुछ जीव जगत, पत्थर, नदी, पहाड़, समुद्र, जंगल, वनस्पति मनुष्य इत्यादि हैं वे सब पृथ्वी की सोच की तरह थे। मन की बात की तरह। मनुष्य की सोच में पता नहीं कैसे ब्रह्मांड आ गया था।
तत्त्व, अंश या अंशी को नहीं; संपूर्ण सामरस्य को लक्ष्य में रखता है।
यदि हम स्वयं को पृथ्वी की प्रज्ञा को समर्पित कर दें, तब हम एक वृक्ष की तरह खड़े हो सकते हैं, अपनी जड़ों से मज़बूत।