आज़ादी पर उद्धरण
स्वतंत्रता, स्वाधीनता,
मुक्ति के व्यापक अर्थों में आज़ादी की भावना मानव-मन की मूल प्रवृत्तियों में से एक है और कविताओं में महत्त्व पाती रही है। देश की पराधीनता के दौर में इसका संकेंद्रित अभिप्राय देश की आज़ादी से है। विभिन्न विचार-बोधों के आकार लेने और सामाजिक-वैचारिक-राजनीतिक आंदोलनों के आगे बढ़ने के साथ कविता भी इसके नवीन प्रयोजनों को साथ लिए आगे बढ़ी है।
मुक्ति अकेले में अकेले की नहीं हो सकती। मुक्ति अकेले में अकेले को नहीं मिलती।
जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे, तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।
मैं शरीर में रहकर भी शरीर-मुक्त, और समाज में रहकर भी समाज-मुक्त हूँ।
बड़े राष्ट्र की पहचान यही है कि अपने समाजों में साथ-साथ रहने-पहनने का चाव और स्वीकारने-अस्वीकारने का माद्दा जगाता है।
मुक्ति के बिना समानता प्राप्त नहीं की जा सकती और समानता के अभाव में मुक्ति संभव नहीं है।
आसक्तियाँ और रोग—ये दोनों वस्तुएँ आदमी को पराक्रमी और स्वाधीन करती हैं।
अहं से आज़ादी आसान तो नहीं, लेकिन बतौर आदर्श यह ज़रूरी है।
आज़ादी दो गुटों में से किसी एक की ग़ुलामी से मिलती है।
सीमा जब अस्वीकार बन जाती है, उस दिन वह असीम हो जाती है।
अगर स्वाधीनता इसलिए चाहिए कि प्रेम हो सके और प्रेम तभी होता हो, जब प्रतिबद्धता हो तो स्वाधीनता का क्या होता है और प्रेम का क्या बनता है?
स्वतंत्रता एक आदर्श स्थिति नहीं है, क्योंकि यह एक मूल आकांक्षा है; मानवता का सम्पूर्ण इतिहास संघर्षों और प्रयासों से मिलकर सामाजिक संस्थाओं को निर्धारित करने की कोशिश करने से मिलता है, जो कि अधिकतम स्वतंत्रता सुनिश्चित करने क्षमता रखती है।
अत्याचारी स्वतंत्रता का नष्ट करने और फिर भी अपने लिए स्वतंत्रता रखने के लिए स्वतंत्रता का दावा करता है।