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आज़ादी पर दोहे

स्वतंत्रता, स्वाधीनता,

मुक्ति के व्यापक अर्थों में आज़ादी की भावना मानव-मन की मूल प्रवृत्तियों में से एक है और कविताओं में महत्त्व पाती रही है। देश की पराधीनता के दौर में इसका संकेंद्रित अभिप्राय देश की आज़ादी से है। विभिन्न विचार-बोधों के आकार लेने और सामाजिक-वैचारिक-राजनीतिक आंदोलनों के आगे बढ़ने के साथ कविता भी इसके नवीन प्रयोजनों को साथ लिए आगे बढ़ी है।

तुच्छ स्वर्गहूँ गिनतु जो, इक स्वतंत्रता-काज।

बस, वाही के हाथ है, आज हिन्द की लाज॥

वियोगी हरि

वही धर्म, वही कर्म, बल, वही विद्या, वही मंत्र।

जासों निज गौरव-सहित, होय स्वदेस स्वतंत्र॥

वियोगी हरि
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परधीनता दुख महा, सुख जग मैं स्वाधीन।

सुखी रमत सुक बन विषे, कनक पींजरे दीन॥

दीनदयाल गिरि

जाहि देखि फहरत गगन, गये काँपि जग-राज।

सो भारत की जय-ध्वजा, परी धरातल आज॥

वियोगी हरि
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भीख-सरिस स्वाधीनता, कन-कन जाचत सोधि।

अरे, मसक की पाँसुरिनु, पाट्यौ कौन पयोधि॥

वियोगी हरि
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पराधीनता-दुख-भरी, कटति काटें रात।

हा! स्वतंत्रता कौ कबै ह्वै, है पुण्य प्रभात॥

वियोगी हरि

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