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देश पर दोहे

देश और देश-प्रेम कवियों

का प्रिय विषय रहा है। स्वंतत्रता-संग्राम से लेकर देश के स्वतंत्र होने के बाद भी आज तक देश और गणतंत्र को विषय बनाती हुई कविताएँ रचने का सिलसिला जारी है।

कोविड में बहरा हुआ

अंधा बीच बज़ार।

शमशानों में ढूँढ़ता

कहाँ गई सरकार॥

जीवन सिंह

खाल खींचकर भुस भरा

और निचोड़े हाड़।

राजा जी ने देश के

ख़ूब लड़ाए लाड़॥

जीवन सिंह

बसत सदा ता भूमि पै, तीरथ लाख-करोर।

लरत-मरत जहँ बाँकुरे, बिरूझि बीर बरजोर॥

वियोगी हरि
  • संबंधित विषय : वीर

वही धर्म, वही कर्म, बल, वही विद्या, वही मंत्र।

जासों निज गौरव-सहित, होय स्वदेस स्वतंत्र॥

वियोगी हरि

अरे, फिरत कत, बावरे! भटकत तीरथ भूरि।

अजौं धारत सीस पै सहज सूर-पग-धूरि॥

वियोगी हरि
  • संबंधित विषय : वीर

जाहि देखि फहरत गगन, गये काँपि जग-राज।

सो भारत की जय-ध्वजा, परी धरातल आज॥

वियोगी हरि

जगी जोति जहँ जूझ की, खगी खंग खुलि झूमि।

रँगा रूधिर सों धूरि, सो धन्य धन्य रण-भूमि॥

वियोगी हरि
  • संबंधित विषय : वीर

भीख-सरिस स्वाधीनता, कन-कन जाचत सोधि।

अरे, मसक की पाँसुरिनु, पाट्यौ कौन पयोधि॥

वियोगी हरि

सुभट-सीस-सोनित-सनी, समर-भूमि! धनि-धन्य।

नहिं तो सम तारण-तरण, त्रिभुवन तीरथ अन्य॥

वियोगी हरि

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