कब कौ टेरतु दीन रट, होत न स्याम सहाइ।
तुमहूँ लागी जगत-गुरु, जग-नाइक, जग-बाइ॥
हे भगवान, मैं आपको कब से कातर स्वर में पुकार रहा हूँ, किंतु आप मेरे सहायक नहीं हो रहे हैं। हे संसार के गुरु, हे संसार के नायक, क्या मैं यह समझ लूँ कि आपको भी इस संसार की हवा लग गई है?
वाही की चित चटपटी, धरत अटपटे पाइ।
लपट बुझावत बिरह की, कपट-भरेऊ आइ॥
हे प्रियतम, तुम अपनी प्रेयसी के प्रेम-रंग में ऐसे रंग गए हो कि तुम्हारा इस प्रकार का आचरण तुम्हारे कपट भाव को ही व्यक्त कर रहा है। इतने पर भी मैं तुम्हारे कपट भावजनित मिलन को भी अपना सौभाग्य मानती हूँ। मेरे सौभाग्य का कारण यह है कि तुम कम-से-कम मेरे पास आकर दर्शन देते हुए मेरी विरह-ज्वाला को शांत तो कर रहे हो।
जानराय! जानत सबैं, असरगत की बात।
क्यौं अज्ञान लौं करत फिरि, मो घायल पर घात॥
हे सुजान! तुम मेरे मन की सभी बातें जानती हो। तुम जानती हो कि मैं घायल हूँ। घायल पर चोट करना अनुचित है, इसे भी तुम जानती होंगी, सुजानराय जो ठहरीं। फिर भी तुम मुझ घायल पर आघात कर रही हो, यह अजान की भाँति आचरण क्यों कर रही हो! तुम्हारे नाम और आचरण में वैषम्य है।
हरै पीर तापैं हरी बिरद् कहावत लाल।
मो तन में वेदन भरी, सो नहिं हरी जमाल॥
हे परमात्मा ! तू पीर ( वेदना ) हरण कर लेता है इसी से तुम्हें विरद हरि कहा गया है। पर मेरे शरीर में व्याप्त पीड़ा को तूने अभी तक क्यों नहीं हरण किया!
बंधु भए का दीन के, को तार्यौ रघुराइ।
तूठे-तूठे फिरत हौ, झूठे बिरद कहाइ॥
भक्त अपने आराध्य को उपालंभ देता हुआ कहता है कि आप भाई भी बने तो दीन अर्थात् धर्मात्मा के। इसमें आपकी कोई बड़ाई नहीं है क्योंकि धर्मात्मा तो धर्मपरायण होने के कारण स्वतः ही भवसागर पार कर जाते हैं। हाँ, यदि मुझ जैसे पापी का उद्धार करते तो उसमें आपकी गरिमा होती है । हे रघुवंश के शिरोमणि, आप यह भी बता दीजिए कि अपनी मिथ्या कीर्ति पर आप प्रसन्न क्यों? जब आपने किसी पापी को तारा ही नहीं या किसी पापी का उद्धार ही नहीं किया तो आप पतिततारण की उपाधि पर प्रसन्नता का अनुभव क्यों कर रहे हैं?
हरै पीर तापैं हरी, बिरद कहावत लाल।
मो तन में वेदन भरी, सो नहिं हरी जमाल॥
हे परमात्मा ! तू पीर (वेदना) हरण कर लेता है इसी से तेरा विरद हरी कहा गया है, पर मेरे शरीर में व्याप्त पीड़ा को तूने अभी तक क्यों नहीं हरण किया।
थौरें ही गुन रीझते, बिसराई वह बानि।
तुमहूँ कान्ह, मनौ भए, आजकाल्हि के दानि॥
हे कृष्ण, आप पहले तो थोड़े-से ही गुणों पर रीझ जाया करते थे, किंतु अब लगता है कि आपने अपनी रीझने वाली आदत या तो विस्मृत कर दी है या छोड़ दी है। आपकी इस स्थिति को देखकर ऐसा आभासित होता है मानों आप भी आजकल के दाता बन गए हों।
रे हितियारे अधरमी, तू न आवत लाल।
जोबन अजुंरी नीर सम, छिन घट जात जमाल॥
प्रियतम! तुम कितने कठोर हृदय वाले और अन्यायी हो। अंजलि में भरे पानी के समान यौवन अस्थिर है; वह चला जाएगा। तुम आते क्यों नहीं हो?
कोविड में बहरा हुआ
अंधा बीच बज़ार।
शमशानों में ढूँढ़ता
कहाँ गई सरकार॥
जान अजान न होत, जगत विदित यह बात।
बेर हमारी जान कै, क्यों अजान होइ जात॥
यह बात संसार में प्रसिद्ध है कि कोई भी जानने वाला आदमी संसार में अनजान नहीं हो सकता। पर हे भगवान! आप मेरी वारी मेरे उद्धार की बात जानते हुए भी क्यों अनजान बने हुए हो।
दीनबंधु अधमुद्धरन, नाम ग़रीब निवाज़।
यह सब में मैं कोन जो, सुधि न लेत ब्रजराज॥
हे ब्रजराज! आप दीनबंधु हैं तो क्या मैं दीन नहीं हूँ, आप अधमों का उद्धार करने वाले हैं तो क्या मैं अधम नहीं हूँ, आप ग़रीबनिवाज़ हैं, तो क्या मैं ग़रीब नहीं हूँ। इन सब में से क्या मैं कुछ भी नहीं हूँ जो आप अब तक मेरी सुध नहीं लेते!
पहले अंधा एक था
अब अंधों की फ़ौज।
राम नाम के घाट पर
मौज मौज ही मौज॥
अफ़सर बैठे घरों में
नेता भी घर बंद।
कोरोना ही फिर रहा
सड़कों पर स्वच्छंद॥
प्रीतम मेरा एक तूं, सुन्दर और न कोइ।
गुप्त भया किस कारने, काहि न परगट होइ॥
जो कछु लघुता करत हौ, सो असीम है ईस!
फिरि यह मो पायन परन, अति अनुचित ब्रजधीस॥
मेघ नये बुँदिया नई, नव तृन नये वितान।
तजत नवेली नारि को, क्यों नव नाह सुजान॥