सांप्रदायिकता पर दोहे

सांप्रदायिकता संप्रदाय

विशेष से संबद्धता का प्रबल भाव है जो हितों के संघर्ष, कट्टरता और दूसरे संप्रदाय का अहित करने के रूप में प्रकट होता है। आधुनिक भारत में इस प्रवृत्ति का उभार एक प्रमुख चुनौती और ख़तरे के रूप में हुआ है और इससे संवाद में कविताओं ने बढ़-चढ़कर भूमिका निभाई है। इस चयन में सांप्रदायिकता को विषय बनाती और उसके संकट को रेखांकित करती कविताएँ संकलित की गई हैं।

मस्जिद सों कुछ घिन नहीं, मंदिर सों नहीं पिआर।

दोए मंह अल्लाह राम नहीं, कहै रैदास चमार॥

तो मुझे मस्जिद से घृणा है और ही मंदिर से प्रेम है। रैदास कहते हैं कि वास्तविकता यह है कि तो मस्जिद में अल्लाह ही निवास करता है और नही मंदिर में राम का वास है।

रैदास

काबा फिर कासी भया, राम भया रहीम।

मोट चून मैदा भया, बैठ कबीर जीम॥

सांप्रदायिक सद्भावना के कारण कबीर के लिए काबा काशी में परिणत हो गया। भेद का मोटा चून या मोठ का चून अभेद का मैदा बन गया, कबीर उसी को जीम रहा है।

कबीर

हिंदू पूजइ देहरा मुसलमान मसीति।

रैदास पूजइ उस राम कूं, जिह निरंतर प्रीति॥

हिंदू मंदिरों में पूजा करने के लिए जाते हैं और मुसलमान ख़ुदा की इबादत करने के लिए मस्जिदों में जाते हैं। दोनों ही अज्ञानी हैं। दोनों को ही ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम नहीं है। रैदास कहते हैं कि मैं जिस राम की आराधना करता हूँ, उसके प्रति मेरी सच्ची प्रीति है।

रैदास

पहले अंधा एक था

अब अंधों की फ़ौज।

राम नाम के घाट पर

मौज मौज ही मौज॥

जीवन सिंह

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