प्रार्थना पर दोहे
प्रार्थना प्रायः ईश्वर
के प्रति व्यक्त स्तुति या उससे याचना का उपक्रम है। इस चयन में प्रस्तुत है—प्रार्थना के भाव में रचित कविताओं का एक अनूठा संकलन।
सुख सागर नागर नवल, कमल बदन द्युतिमैन
करुणा कर वरुणादिपति, शरणागत सुख दैन॥
गोकुल ब्रंदावन लिहू, मोपें जुगजीवन्न।
पलटें मोको देहु फिर, गोकुल ब्रंदाबन्न॥
कवि कहता है, मेरी इंद्रियो के समूह (गोकुल) को आप लीजिए, अपने वश में कर लीजिए। तुलसीदल (वृंदा) और जल (वन) अर्थात् वृंदावन से ही आपकी मैं मनुहार कर सकता हूँ, अतः कृपा करके इन्हें स्वीकार कीजिए और इनके बदले में आप मुझे अपने प्रिय धाम गोकुल और वृंदावन में रहने का सौभाग्य प्रदान कीजिए।
काल करम गुन दोष जग, जीव तिहारे हाथ।
तुलसी रघुबर रावरो, जानु जानकीनाथ॥
तुलसी कहते हैं कि हे रघुनाथजी! काल, कर्म, गुण, दोष, जगत्-जीव सब आपके ही अधीन हैं। हे जानकीनाथ! इस तुलसी को भी अपना ही जानकर अपनाइए।
लाऊं पै सिर लाज हूं, सदा कहाऊं दास।
गण ह्वै गाऊं तूझ गुण, पाऊंवीर प्रकास॥
हे गणपति! मैं आपके चरणों में लज्जा से अपना सिर झुकता हूँ क्योंकि मैं आपका सदा दास कहलाता हूँ। अतः मैं आप का गण होकर आपका गुण-गान करता हूँ जिससे मुझे वीर रस का प्रकाश मिले। अर्थात् मैं दासत्व की भावना का उन्मूलन करके अपनी इस कृति में वीर रस का मूर्तिमान स्वरूप खड़ा कर सकूँ।
प्रगट भए द्विजराज-कुल, सुबस बसे ब्रज आइ।
मेंरो हरौ कलेस सब, केसव केसवराइ॥
जो द्विजराज-कुल अर्थात् ब्राह्मण कुल या चंद्रवंश में प्रकट हुए और जो स्ववश अर्थात् अपनी इच्छा से ब्रज में आकर बसे, वे केशव-केशवराय मेरे सब क्लेशों को दूर करें।
हरै पीर तापैं हरी, बिरद कहावत लाल।
मो तन में वेदन भरी, सो नहिं हरी जमाल॥
हे परमात्मा ! तू पीर (वेदना) हरण कर लेता है इसी से तेरा विरद हरी कहा गया है, पर मेरे शरीर में व्याप्त पीड़ा को तूने अभी तक क्यों नहीं हरण किया।
चूक जीव कों धरम है, छमा धरम प्रभु आप।
आयो शरन निवाजि निज, करि हरियें संताप॥
भूल करना जीव का धर्म है और हे प्रभु, क्षमा करना आपका धर्म है। मैं आपकी शरण में आ गया हूँ। संतापों को हर कर आप मुझे संतुष्ट कीजिए।
स्याम-रूप अभिराम अति, सकल विमल गुन-धाम।
तुम निसिदिन मतिराम कइ, मति बिसरौ मतिराम॥
हे संपूर्ण श्रेष्ठ निर्मल गुणों के भंडार अत्यंत सुंदर भगवान् राम! तुम मतिराम का विचार अपने हृदय में से क्षण भर भी दूर मत करो अर्थात् तुम सदा मेरा ध्यान रखते रहो।
अबसि चैन-चित रैण-दिन, भजहीं खगाधिपध्याय।
सीता-पति-पद-पद्म-चह, कह जमाल गुण गाय॥
पक्षी आदि भी जिसकी आराधना कर निर्भय रहते हैं, तू भी उन्हीं के गुण गाकर भगवान राम के चरणों में आश्रय पाने की चाह कर।
समता सब बिधि नेह अति, तृप्ति न अचल मिलाप।
दुहु कों निर्भय यह त्हरें, पैयें दें हरिं आप॥
दानों में (गुण,कर्म और स्वभावादि) सब प्रकार की समता, परस्पर अत्यधिक स्नेह, मिलने की आतुरता (अतृप्ति) और निर्भय चिर-मिलन; ये (चार बातें) तो तभी संभव है जब हे हरि आप दें।
जान अजान न होत, जगत विदित यह बात।
बेर हमारी जान कै, क्यों अजान होइ जात॥
यह बात संसार में प्रसिद्ध है कि कोई भी जानने वाला आदमी संसार में अनजान नहीं हो सकता। पर हे भगवान! आप मेरी वारी मेरे उद्धार की बात जानते हुए भी क्यों अनजान बने हुए हो।
अधम अजामिल आदि जे, हौं तिनकौ हौं राउ।
मोहूँ पर कीजै दया, कान्ह दया दरियाउ॥
हे भगवान्! अजामिल आदि जितने भी नीच पापी हुए हैं, मैं उनका भी सरदार हूँ। इसलिए हे श्रीकृष्ण, हे दया के सागर, जिस प्रकार आपने अजामिल आदि अनेक पापियों का उद्धार किया वैसे ही मेरा भी उद्धार कीजिए।
कहै अलप मति कौन बिध, तेरे गुन बिस्तार।
दीन-बंधु प्रभु दीन कौं, लै हर बिधि निस्तार॥
हे भगवान! मैं छोटी बुद्धि वाला भला आपके गुणों के विस्तार का किस प्रकार वर्णन कर सकता हूँ। हे दीनबंधु! मुझ दीन का आप प्रत्येक प्रकार से उद्धार कर दीजिए अथवा मेरा सदा ध्यान रखते रहिए।
छमा करहु अपराध सब, अपराधिनी के आय।
बुरी भली हों आपकी, तजउ न लेउ निभाय॥
मुझ अपराधिनी के सारे अपराधों को आप छमा कीजिए। मैं बुरी हूँ या भली हूँ, जैसी भी हूँ आपकी हूँ, अतः मेरा त्याग न कीजिए और मुझे निभा लीजिए।
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हों न नाथ अपराधिनी, तौउ छमा करि देउ।
चरनन दासी जानि निज, वेगि भोरि सुधि लेउ॥
हे प्राणनाथ! मैं अपराधिनी नहीं हूँ। यदि आपकी दृष्टि में अपराधिनी हूँ, तो भी मुझे क्षमा कर दीजिए। अपने चरणों की दासी (अपनी भार्या) समझकर त्वरित ही मेरी सुध लीजिए।
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रूप दृगन स्रवनन सुजस, रसना में हरिनाम।
रसनिधि मन में नित बसैं, चरन कमल अभिराम॥
मेरे नेत्रों में भगवान का स्वरूप, कानों में भगवान के गुणगान के शब्द, जिह्वा में भगवान का नाम और मन में भगवान के सुंदर चरण-कमल सदा निवास करें।
अब तो प्रभु तारै बनै, नातर होत कुतार।
तुमहीं तारन-तरन हौ, सो मोरै आधार॥
हे भगवान! अब तो मेरा उद्धार करने से ही बात बनेगी नहीं तो सब बात बिगड़ जाएगी। भक्तों का उद्धार करने वाले हे प्रभू! एक तुम्हीं मेरे आधार हो।
नमो प्रेम-परमारथी, इह जाचत हौं तोहि।
नंदलाल के चरन कौं, दे मिलाइ किन मोहि॥
हे प्रेम के परोपकारी प्रभु! मैं तुम से यही प्रार्थना करता हूँ कि तुम मुझे नंदलाल श्रीकृष्ण के चरणों से क्यों नहीं मिला देते अर्थात अवश्य मुझे श्रीकृष्ण से मिला दीजिए।
गोपिन केरे पुंज में, मधुर मुरलिका हाथ।
मूरतिवंत शृंगार-रस, जय-जय गोपीनाथ॥
जयतु कंस-करि-केहरि! मधु-रिपु! केशी-काल।
कालिय-मद-मर्द्दन! हरे! केशव! कृष्ण कृपाल॥
एक-रदन विद्या-सदन, उमा-नँदन गुन-कोष।
नाग-बदन मोदक-अदन, बिघन-कदन हर दोष॥
वत्सलता अरु अभय सदा, आरत-अघ-सोखन।
दीनबंधु सुखसिंधु सकल, सुख दै दुख-मोचन॥
काटौ कठिन कलेसु मो, मोह-मार-मद वक्र।
मथन-मत्त-शिशुपाल-करि, केहरि केशव-चक्र॥
गिरिवरू जापै धारि कै, राखी ब्रज-जन-लाज।
ताही छिगुनी कौ हमैं, बल बानो, यदुराज॥
परब्रह्म परापरं, सो मम देव निरंजनं।
निराकारं निर्मलं, तस्य दादू बंदनं॥
बंदौ श्री सुकदेव जी, सब बिधि करो सहाय।
हरो सकल जग आपदा, प्रेम-सुधा रस प्याय॥
दादू सतगुर सहज में, किया बहु उपगार।
निरधन धनवँत करि लिया, गुर मिलिया दातार॥
जतन बहुत मैं करि रहिओ, मिटिओ न मन को मान।
दुर्मति सिउ नानक फँधिओ, राखि लेह भगवान॥
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श्रीस्यामा कों करत हैं, रामसहाय प्रनाम।
जिन अहिपतिधर कों कियौ, सरस निरंतर धाम॥
दोष-कोष मोहि जानि पिय, जो कुछ करहू सो थोर।
अस विचारि अपनावहु, समझि आपुनी ओर॥
चरनदास गुरुदेव जू, ब्रह्म-रूप सुख-धाम।
ताप-हरन सब सुख-करन, 'दया' करत परनाम॥
जै जै परमानंद प्रभु, परम पुरुष अभिराम।
अंतरजामी कृपानिधि, 'दया' करत परनाम॥
सुन्दर सद्गुरु भक्तिमय, भजनमई भजिराम।
सुखमय रसमय अमृतमय, प्रेम मांहि बिश्राम॥
जिन काढ़ौ ब्रजनाथ जू, मो करनी कौ छोर।
मो कर नीके कर गहौ, रसनिधि नंदकिसोर॥
रसनिधि कहते हैं कि हे भगवान! आप मेरे कामों के अंत या परिणाम की ओर मत देखिए। आप तो मेरे हाथों को भली भांति मजबूती से पकड़ लीजिए। भाव यह कि यदि कर्मों का लेखा लगाने लगेंगे तो मेर कभी उद्धार न हो सकेगा अतः आप मेरे बुरे कर्मों का लेखा न देखकर मेरे उद्धार के लिए मेरा हाथ पकड़ लीजिए।