सूर्यमल्ल मिश्रण की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 20
मतवालो जोबन सदा, तूझ जमाई माय।
पड़िया थण पहली पड़ै, बूढ़ी धण न सुहाय॥
हे माता! तुम्हारा दामाद सदा यौवन में मस्त हैं। उन्हें पत्नी का वृद्धत्व नहीं सुहाता। इसलिए पत्नी के स्तन ढीले पड़ने के पहले ही वे अपना देहपात कर डालेंगे। अर्थात्
प्रेम और शौर्य दोनों का एक साथ निर्वाह वीरों का आदर्श रहा है।
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कंत घरे किम आविया, तेहां रौ घण त्रास।
लहँगे मूझ लुकीजियै, बैरी रौ न विसास॥
कायर पति के प्रति वीरांगना की व्यंग्यात्मक उक्ति है—हे पति-देव! घर कैसे पधार
आए? क्या तलवारों का बहुत डर लगा? ठीक तो है। आइए, मेरे लहँगे में छिप
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हेली तिल तिल कंत रै, अंग बिलग्गा खाग।
हूँ बलिहारी नीमड़ै, दीधौ फेर सुहाग॥
नीम की प्रशंसा करती हुई एक वीरांगना कहती है—हे सखी! पति के शरीर पर तिल-तिल भर जगह पर भी तलवारों के घाव लगे थे परंतु मैं नीम वृक्ष पर बलिहारी हूँ कि उसके उपचार ने मुझे फिर सुहाग दे दिया।
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धव जीवे भव खोवियौ, मो मन मरियौ आज।
मोनूं ओछै कंचुवै, हाथ दिखातां लाज॥
हे पति! तुमने युद्ध में जीवित बचकर (अपनी कीर्ति को नष्ट करके) जन्म ही वृथा खो दिया। अतः मेरे मन का सारा उल्लास आज मर गया है। अब मुझे सुहाग-चिह्न ओछी कंचुकी में हाथ लगाते भी अर्थात् पहनने में भी लज्जा आती है। इस प्रकार के सौभाग्य से तो वैधव्य अच्छा!
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खोयो मैं घर में अवट, कायर जंबुक काम।
सीहां केहा देसड़ा, जेथ रहै सो धाम॥
सिंहों के लिए कौनसा देश और कौनसा परदेश! वे जहाँ रहें, वहीं उनका घर हो जाता है। किंतु खेद है कि मैंने तो घर पर रहकर ही सियार के से कायरोचित कामों में अपनी पूरी उम्र बिता दी।
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