गुरु पर दोहे
मध्यकालीन काव्य में
गुरु की महिमा की समृद्ध चर्चा मिलती है। प्रस्तुत संचयन में गुरु-संबंधी काव्य-रूपों और आधुनिक संदर्भ में शिक्षक-संबंधी कविताओं का संग्रह किया गया है।
हम भी पांहन पूजते, होते रन के रोझ।
सतगुरु की कृपा भई, डार्या सिर पैं बोझ॥
कबीर कहते हैं कि यदि सद्गुरु की कृपा न हुई होती तो मैं भी पत्थर की पूजा करता और जैसे जंगल में नील गाय भटकती है, वैसे ही मैं व्यर्थ तीर्थों में भटकता फिरता। सद्गुरु की कृपा से ही मेरे सिर से आडंबरों का बोझ उतर गया।
गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल ख़ुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥
ख़ुसरो कहते हैं कि आत्मा रूपी गोरी सेज पर सो रही है, उसने अपने मुख पर केश डाल लिए हैं, अर्थात वह दिखाई नहीं दे रही है। तब ख़ुसरो ने मन में निश्चय किया कि अब चारों ओर अँधेरा हो गया है, रात्रि की व्याप्ति दिखाई दे रही है। अतः उसे भी अपने घर अर्थात परमात्मा के घर चलना चाहिए।
प्रेम पंथ की पालकी, रैदास बैठियो आय।
सांचे सामी मिलन कूं, आनंद कह्यो न जाय॥
रैदास कहते हैं कि वे प्रेम−मार्ग रूपी पालकी में बैठकर अपने सच्चे स्वामी से मिलने के लिए चले हैं। उनसे मिलने की चाह का आनंद ही निर्वचनीय है, तो उनसे मिलकर आनंद की अनुभूति का तो कहना ही क्या!
प्रेम लटक दुर्लभ महा, पावै गुरु के ध्यान।
अजपा सुमिरण कहत हूं, उपजै केवल ज्ञान॥
सहजो कहती हैं कि ईश्वरीय प्रेम की अनुभूति अत्यन्त दुर्लभ है। वह सद्गुरु के ध्यान से ही मिलती है। इसलिए स्थिर मन से ईश्वर एवं गुरु का स्मरण-ध्यान करना चाहिए, क्योंकि उसी से ईश्वरीय ज्ञान की साक्षात् अनुभूति हो पाती है।
अड़सठ तीरथ गुरु चरण, परवी होत अखंड।
सहजो ऐसो धामना, सकल अंड ब्रह्मंड॥
सद्गुरु के चरणों में सारे अड़सठ पवित्र तीर्थ रहते हैं, अर्थात उनके चरण अड़सठ तीर्थों के समान पवित्र एवं पूज्य है। उनका पुण्यफल पवित्रतम है। इस समस्त संसार में ऐसा कोई धाम या तीर्थ नहीं है जो सद्गुरु के चरणों में नहीं है।
गुरुवचन हिय ले धरो, ज्यों कृपणन के दाम।
भूमिगढ़े माथे दिये, सहजो लहै न राम॥
सहजो कहती हैं कि सुगंधित सुंदर फूलों की माला के समान सद्गुरु के वचनों को हदय में धारण करना चाहिए। अतीव विनम्रता रखकर, सहर्ष मन में धारण कर सद्गुरु-वचनों को अपनाने से ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है।
दादू प्रीतम के पग परसिये, मुझ देखण का चाव।
तहाँ ले सीस नवाइये, जहाँ धरे थे पाव॥
विरह के माध्यम से ईश्वर का स्वरूप बने संतों की चरण-वंदना करनी चाहिए। ऐसे ब्रह्म-स्वरूप संतों के दर्शन करने की मुझे लालसा रहती है। जहाँ-तहाँ उन्होंने अपने चरण रखे हैं, वहाँ की धूलि को अपने सिर से लगाना चाहिए।
सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥
सद्गुरु ने मुझ पर प्रसन्न होकर एक रसपूर्ण वार्ता सुनाई जिससे प्रेम रस की वर्षा हुई और मेरे अंग-प्रत्यंग उस रस से भीग गए।
जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधा−अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत॥
जिसका गुरु अँधा अर्थात् ज्ञान−हीन है, जिसकी अपनी कोई चिंतन दृष्टि नहीं है और परंपरागत मान्यताओं तथा विचारों की सार्थकता को जाँचने−परखने की क्षमता नहीं है; ऐसे गुरु का अनुयायी तो निपट दृष्टिहीन होता है। उसमें अच्छे-बुरे, हित-अहित को समझने की शक्ति नहीं होती, जबकि हित-अहित की पहचान पशु-पक्षी भी कर लेते हैं। इस तरह अँधे गुरु के द्वारा ठेला जाता हुआ शिष्य आगे नहीं बढ़ पाता। वे दोनों एक-दूसरे को ठेलते हुए कुएँ मे गिर जाते हैं अर्थात् अज्ञान के गर्त में गिर कर नष्ट हो जाते हैं।
क्या गंगा क्या गोमती, बदरी गया पिराग।
सतगुर में सब ही आया, रहे चरण लिव लाग॥
सतगुर की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार॥
ज्ञान के आलोक से संपन्न सद्गुरु की महिमा असीमित है। उन्होंने मेरा जो उपकार किया है वह भी असीम है। उसने मेरे अपार शक्ति संपन्न ज्ञान-चक्षु का उद्घाटन कर दिया जिससे मैं परम तत्त्व का साक्षात्कार कर सका। ईश्वरीय आलोक को दृश्य बनाने का श्रेय महान गुरु को ही है।
सतगुरु मिल्यो तो का भयो, घट नहिं प्रेम प्रतीत।
अंतर कोर न भींजई, ज्यों पत्थल जल भीत॥
इक लख चंदा आणि घर, सूरज कोटि मिलाइ।
दादू गुर गोबिंद बिन, तो भी तिमर न जाइ॥
जानी आये गोरवें, फूली कीयो विचार।
सब संतन को बालमो, सो मेरो भरतार॥
साधु समागम सत्य करि, करै कलंक बिछोह।
परसुराम पारस परसि, भयो कनक ज्यों लोह॥
या तन की सारैं करूँ, प्रीत जु पासे लाल।
सतगुरु दाँव बताइया, चौपर रमे जमाल॥
शरीर को गोटें (मोहरें) और प्रीति के पासे हैं, सतगुरु दांव (चाल) बता रहे हैं; और चौपड़ का खेल खेल रहा हूँ।
दादू सतगुरु सौं सहजैं मिल्या, लीया कंठ लगाइ।
दया भई दयाल की, तब दीपक दीया जगाइ॥
मेरे सतगुरु मुझे सहज भाव से मिले। मुझे अपने गले से लगा लिया। उनकी दया से मेरे हृदय में ज्ञान रूपी दीपक प्रज्वलित हो गया अर्थात् उसके प्रकाश से मेरा अज्ञानरूपी अंधकार दूर हो गया।
बिनु डाँड़े जग डाँड़िया, सोरठ परिया डाँड़।
बाटनि हारे लोभिया, गुर ते मीठी खाँड़॥
संसार के लोगों को किसी ने दण्डित नहीं किया,किंतु ये अपने अज्ञानवश स्वयं ही दण्डित हुए। इनका मानव-जीवनरूपी जुआ व्यर्थ गया। ये सुख के लोभी अपने कल्याण की इच्छा का दांव हार गए। गुड़ से शकर मीठा होता है, परंतु ये गुड़ को शकर न बना सके अर्थात जीवन को तपाकर आध्यात्मिक लाभ न ले सके।
सब घट माँही राम है, ज्यौं गिरिसुत में लाल।
ज्ञान गुरु चकमक बिना, प्रकट न होत जमाल॥
पर्वत में स्थित रत्नों के समान राम प्रत्येक शरीर में व्याप्त है। किंतु, बिना गुरु से ज्ञान प्राप्त किए वह (राम) प्रकट नहीं होता।
गुरु सिकलीगर कीजिये, मनहि मस्कला देय।
शब्द छोलना छोलिके, चित दर्पण करि लेय॥
जिस प्रकार सिकलीगर मसकला देकर धातुओं को उज्ज्वल कर देता है, उसी प्रकार ऐसे सद्गुरु की शरण लो जो तुम्हारे मन पर विवेक का मसकला देकर, निर्णय शब्दरूपी छोलने से छीलकर और मल, विक्षेप तथा आवरणरूपी मूर्चा को झाड़कर तुम्हारे चित्त को दर्पणवत स्वच्छ बना दे।
सेइ साधु गुरु समुझि सिखि, राम भगति थिरताइ।
लरिकाई को पैरिबो, तुलसी बिसरि न जाइ॥
सच्चे साधु और सद्गुरु की सेवा करके उनसे श्री राम के तत्त्व को समझो और सीखो, तब श्री राम की भक्ति स्थिर हो जाएगी; क्योंकि बचपन में सीखा हुआ तैरना फिर नहीं भूलता।
जाका गुरु है आँधरा, चेला काह कराय।
अंधे अंधा पेलिया, दोऊ कूप पराय॥
जिसका गुरु ही जड़-चेतन एवं सार-असार के विवेक से रहित है, वह शिष्य बेचारा क्या करे! अंतत: गुरु-शिष्य दोनों विवेकहीन बने अंध-परंपरा में एक दूसरे को ठेलते हुए अज्ञान एवं कल्पना के कुएं में पड़े रहते हैं।
ऊपर की दोऊ गई, हियहु की गई हेराय।
कहहिं कबीर जाकी चारिउ गई, ताको काह उपाय॥
ऊपर के दोनों चर्मनेत्रों से देखकर जो सत्यज्ञान एवं अच्छे आचरणों से नहीं चलता, और जिसके हृदय के विवेक-विचार रूपी नेत्र भी फूट गए हैं, सद्गुरु कहते हैं कि इस प्रकार जिसके चारों नेत्र नहीं रह गए, उसके कल्याण का क्या उपाय है!
परम दया करि दास पै, गुरु करी जब गौर।
रसनिधि मोहन भावतौ, दरसायौ सब ठौर॥
जब गुरुदेव ने अपने इस दास पर बड़ी भारी दया कर के कुछ ध्यान दिया तो सभी स्थानों में अर्थात सृष्टि के अणु-अणु में उस परम प्रिय श्रीकृष्ण का दर्शन दिया।
ना तो घर की सुध है, न कोई रिस्तादार।
सैना सतगुरू साहिबा, अलख जगत परवार॥
सैन कहते हैं—मुझे न तो घर की सुधि है, न कोई रिश्तेदार है। मेरा स्वामी सतगुरु है और परिवार सारा संसार है।
क्या हिन्दू क्या मुसलमान, क्या ईसाई जैन।
गुरु भक्ती पूरन बिना, कोई न पावे चैन॥
सब तिर्या सब तिरैंगे, सेनो भव नद बीच।
सैना सतगुरू की कृपा, तरसी आँखाँ मीच॥
सैन कहते हैं—सबका उद्धार हो जायेगा। सैना तो भवसागर के बीच है। उस पर सतगुरु की कृपा है। वह निश्चित रूप से तिर जाएगा।
सद्गुरु भ्राता नृपति कै, बेड़ी काटै आइ।
निगहबांन देखत रहैं, सुन्दर देहि छुड़ाइ॥
दादू देव दयाल की, गुरू दिखाई बाट।
ताला कूँची लाइ करि, खोले सबै कपाट॥
पग धोऊ उण देव का, जो घालि गुरु घाट।
पीपा तिनकू ना गिणूं, जिणरे मठ अर ठाठ॥
सुआरथ के सब मीत रे, पग-पग विपद बढ़ाय।
पीपा गुरु उपदेश बिनुं, साँच न जान्यो जाय॥
गुरु भक्ति दृढ़ के करो, पीछे और उपाय।
बिन गुरु भक्ति मोह जग, कभी न काटा जाय॥
सोधी दाता पलक में, तिरै तिरावन जोग।
दादू ऐसा परम गुर, पाया कहिं संजोग॥
नानक गुरु संतोखु रुखु धरमु फुलु फल गिआनु।
रसि रसिआ हरिआ सदा पकै करमि सदा पकै कमि धिआनि॥
अनेक चंद उदय करै, असंख सूर परकास।
एक निरंजन नाँव बिन, दादू नहीं उजास॥
सुन्दर ताला शब्द का, सद्गुरु खोल्या आइ।
भिन्न-भिन्न संमुझाय करि, दीया अर्थ बताइ॥
स्वारथ के सब ही सगा, जिनसो विपद न जाय।
पीपा गुरु उपदेश बिनु, राम न जान्यो जाय॥
राम नाम जियां जाणिया, पकड़ गुरु की धार।
पीपा पल में परसिया, खुलग्यो मुक्ति द्वार॥
सुंदर सद्गुरु शब्द का, ब्यौरि बताया भेद।
सुरझाया भ्रम जाल ते, उरझाया था बेद॥
संत मुक्त के पौरिया, तिनसौं करिये प्यार।
कूंची उनकै हाथ है, सुन्दर खोलहिं द्वार॥
जगजीवन घट-घट बसै, करम करावन सोय।
बिन सतगुरु केसो कहै, केहि बिधि दरसन होय॥
सतगुरु जी री खोहड़ी, लागी म्हारे अंग।
पीपा जुड़ग्या पी लगन, टूटी भरम तरंग॥
एक जन्म गुरु भक्ति कर, जन्म दूसरे नाम।
जन्म तीसरे मुक्ति पद, चौथे में निजधाम॥
नित प्रति वंदन कीजिये, गुरु कूँ सीस नवाय।
दया सुखी कर देत है, हरि स्वरूप दर साय॥
साधू सिंह समान है, गरजत अनुभव ज्ञान।
करम भरम सब भजि गये, 'दया' दुर्यो अज्ञान॥
परब्रह्म परापरं, सो मम देव निरंजनं।
निराकारं निर्मलं, तस्य दादू बंदनं॥
या जग में कोउ है नहीं, गुरु सम दीन दयाल।
मरना गत कू जानि कै, भले करै प्रति पाल॥
श्री गुरदेव दया करी, मैं पायो हरि नाम।
एक राम के नाम तें, होत संपूरन काम॥
भ्रम भागा गुरु बचन सुनि, मोह रहा नहिं लेस।
तब माया छल हित किया, महा मोहनी भेस॥