वर्षा पर दोहे

ऋतुओं का वर्णन और उनके

अवलंब से प्रसंग-निरूपण काव्य का एक प्रमुख तत्त्व रहा है। इनमें वर्षा अथवा पावस ऋतु की अपनी अद्वितीय उपस्थिति रही है, जब पूरी पृथ्वी सजल हो उठती है। इनका उपयोग बिंबों के रूप में विभिन्न युगीन संदर्भों के वर्णन के लिए भी किया गया है। प्रस्तुत चयन में वर्षा विषयक विशिष्ट कविताओं का संकलन किया गया है।

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।

अब दादुर बक्ता भए, हमको पूछत कौन॥

वर्षा ऋतु को देखकर कोयल और रहीम के मन ने मौन साध लिया है। अब तो मेंढक ही बोलने वाले हैं। हमारी तो कोई बात ही नहीं पूछता। अभिप्राय यह है कि कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब गुणवान को चुप रह जाना पड़ता है, उनका कोई आदर नहीं करता और गुणहीन वाचाल व्यक्तियों का ही बोलबाला हो जाता है।

रहीम

छपन कोटि आज्ञा करैं, मेघ पृथी पर आइ।

सुन्दर भेजैं रामजी, तहं-तहं वरषै जाइ॥

सुंदरदास

पिक कुहुकै चातक रटै, प्रगटै दामिनि जोत।

पिय बिन यह कारी घटा, प्यारी कैसे होत॥

जसवंत सिंह

घुमड़ी नभ उमड़ी घटा, चपला-चमक अतंत।

बारि-बूँद बरसत घनी, बिरहिन-बिथा अनंत॥

मोहन

सरस-सरस बरसत सलिल, तरस-तरस रहि बाम।

झरस-झरस बिरहागि सों, बरस-बरस भे जाम॥

राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’

सारंग झरि सारंग रव, सुखद स्याम सारंग।

विहरत बर सारंग मिलि, सरसत बरसा रंग॥

राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’

मेघ नये बुँदिया नई, नव तृन नये वितान।

तजत नवेली नारि को, क्यों नव नाह सुजान॥

मोहन

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