तुच्छ स्वर्गहूँ गिनतु जो, इक स्वतंत्रता-काज।
बस, वाही के हाथ है, आज हिन्द की लाज॥
दई छाँड़ि निज सभ्यता, निज समाज, निज राज।
निज भाषाहूँ त्यागि तुम, भये पराये आज॥
मनु लागत न स्वदेस में, यातें रमत बिदेस।
परपितु सों पितु कहत ए, तजि निज कुल निज देस॥
परता में तुम परि गये, नहिं निजता कौ लेस।
निज न पराये होय क्यों, बसौ जाय परदेस॥