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मातृभूमि पर दोहे

तुच्छ स्वर्गहूँ गिनतु जो, इक स्वतंत्रता-काज।

बस, वाही के हाथ है, आज हिन्द की लाज॥

वियोगी हरि

दई छाँड़ि निज सभ्यता, निज समाज, निज राज।

निज भाषाहूँ त्यागि तुम, भये पराये आज॥

वियोगी हरि

मनु लागत स्वदेस में, यातें रमत बिदेस।

परपितु सों पितु कहत ए, तजि निज कुल निज देस॥

वियोगी हरि

परता में तुम परि गये, नहिं निजता कौ लेस।

निज पराये होय क्यों, बसौ जाय परदेस॥

वियोगी हरि

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