विवाह पर उद्धरण
स्त्री-पुरुष युगल को
दांपत्य सूत्र में बाँधने की विधि को विवाह कहा जाता है। यह सामाजिक, धार्मिक और वैधानिक—तीनों ही शर्तों की पूर्ति की इच्छा रखता है। हिंदू धर्म में इसे सोलह संस्कारों में से एक माना गया है। इस चयन में विवाह को विषय या प्रसंग के रूप में इस्तेमाल करती कविताओं को शामिल किया गया है।
हृदय का सम्मिलन ही तो ब्याह है।
स्त्री उन पुरुषों के साथ फ़्लर्ट करती है, जो उससे विवाह नहीं करते और उस पुरुष के साथ विवाह करती है, जो उसके साथ फ़्लर्ट नहीं करता।
स्त्री और सब कुछ भूल सकती है, परंतु विवाह के तत्काल बाद जो उसे एकांत-व्यवहार पति के द्वारा मिलता हे वह अमिट होता है।
विवाह करते समय स्त्री पुरुष की अच्छाई या बुराई का विश्लेषण नहीं करती, पर विवाह करने के तुरंत पश्चात ही वह उसे ‘अच्छा’ देखना चाहती है।
विवाह एक मछली निकालने की उम्मीद में साँपों के थैले में अपना हाथ डालने जैसा है।
लड़की माँ-बाप के घर में ग़ैरहाज़िर जैसी होती थी। उसे उसी तरह पाला-पोसा जाता था कि कोई भटकी हुई आ गई है। भले कोख से आ गई है। एकाध दिन उसे खाना खिला दो कल चली जाएगी। लड़की का रोज़-रोज़, बस एकाध दिन जैसा होता था। फिर ब्याह दी जाती जैसे निकल जाती हो।
विवाह के साथ समस्या यह है कि यह हर रात से उपजे स्नेह के बाद समाप्त हो जाता है, और इसे हर सुबह नाश्ते से पहले फिर से संजोना पड़ता है।
विफल दांपत्य संवादहीनता को जन्म देता है। सफल दांपत्य संवाद की अनावश्यकता को। क्या मौन ही विवाह की चरम परिणति है?