सेक्स पर उद्धरण
‘सेक्स’ अँग्रेज़ी भाषा
का शब्द है जो हिंदी में पर्याप्त प्रचलित है। हिंदी में इसका अर्थात् : रति, संभोग, सहवास, मैथुन, यौनाचार, काम, प्रेमालाप से संबद्ध है। सेक्स एक ऐसी क्रिया है जिसमें देह के माध्यम सुख की प्राप्ति की जाती है या प्रेम प्रदर्शित किया जाता है। सेक्स-केंद्रित कविताओं की प्रमुखता साहित्य में प्राचीनकाल से ही रही है। हिंदी में रीतिकाल इस प्रसंग में उल्लेखनीय है। इसके साथ ही विश्व कविता और भारतीय कविता सहित आधुनिक हिंदी कविता में भी सेक्स के विभिन्न आयामों पर समय-समय पर कविताएँ संभव हुई हैं। यहाँ प्रस्तुत है सेक्स-विषयक कविताओं का एक चयन।
कामासक्ति में केवल मैथुन की ही एकमात्र अपेक्षा रहती है और क्रिया के पश्चात भी प्रेम उत्पन्न नहीं होता, बल्कि अरुचि, ग्लानि जैसी हीन भावनाएँ पैदा होती हैं।
स्त्री अपनी इच्छा के विरुद्ध पति की कामवासना तृप्त करने को मजबूर नहीं है, ऐसा करने वाला पति—व्यभिचारी के समान ही दोष करता है।
प्रणय भोगेच्छा से अधिक व्यापक है। इसमें भोग की तीव्र कामना के समानांतर एक मानसिक कोमलता, एक पारस्परिकता-बोध वर्तमान रहता है।
‘लिबिडो’ में ‘सिडक्शन’ का भाव ज़्यादा रहता है, पारस्परिक संभोग कम—यह मानसिक बलात्कार मात्र है।
कोई रोगी ख़ुद को चरम सुख पाने के लिए जितना विवश करता चला जाता है, सेक्स का सुख उससे उतना ही दूर होता चला जाता है। वह उसे छलने लगता है। उस समय सुख पाने का यह नियम, उसके सुख को नष्ट करने का कारण बन जाता है।
प्रेम भी सेक्स की तरह ही एक प्रमुख कारक है। सामान्य रूप से सेक्स को प्रेम प्रकट करने का एक साधन माना जाता है।
तीन दिन के वासना-प्रवाह में स्त्री बह जाती है और तीन वर्ष के एकांगी प्रेम पर वह एकांत में हँसती है।
स्त्री की वासना पर विजय पा लेना सुगम है। तुम उसका प्रेम पाने के लिए जान खपा सकते हो, पर उसके बाद जो कुछ भी तुम स्त्री से पाते हो, उसकी वासना ही है।
संभोग वह सांत्वना है जो आपको तब मिलती है जब आप को प्रेम नहीं मिलता।
एक विशुद्ध कवि जब सहवास कराता है तो ‘निराला’ हो जाता है। ‘जुही की कली’ और ‘राम की शक्ति-पूजा’। एक महान् कवि सहवास कराता है तो मैथिलीशरण गुप्त हो जाता है। राष्ट्रकवि हमेशा अप्रामाणिक होते हैं।
भोगते हुए व्यक्ति की देह ही जिह्वा होती है।
‘लिबिडो’ मात्र भोगेच्छा है।