मानव को अपने राष्ट्र की सेवा के ऊपर किसी विश्व-भावना व आदर्श को पहला स्थान नहीं देना चाहिए।... देशभक्ति तो मानवता के लक्ष्य विश्वबंधुत्व का ही एक पक्ष है।
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सारा जीवन धर्म-क्षेत्र है और संसार भी धर्म है। केवल आध्यात्मिक ज्ञान की आलोचना और भक्ति का भाव ही धर्म नहीं है, कर्म भी धर्म है। हमारे सारे साहित्य में यही उच्च शिक्षा अति प्राचीन काल से सनातन भाव से व्याप्त हो रही है।
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सारा धन भगवान का है और यह जिन लोगों के हाथ में है, वे उसके रक्षक हैं, स्वामी नहीं।
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देशभक्त स्वदेश के लिए जीता है क्योंकि उसे जीना ही चाहिए, स्वदेश के लिए ही मर जाता है क्योंकि देश की यह माँग होती है।
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जब ज्ञान से आलोकित तथा कर्म के द्वारा नियंत्रित और भीमशक्ति प्राप्त प्रबल स्वभाव परमात्मा के प्रति प्रेम एवं आराधना-भाव में उन्नत होता है, तब वही भक्ति टिक पाती है तथा आत्मा को परमात्मा से सतत संबद्ध बनाए रखती है।
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