मंदिर पर उद्धरण
मंदिर भारतीय सांस्कृतिक
जीवन का अभिन्न अंग रहे हैं। सांप्रदायिक सौहार्द के कविता-संवाद में मंदिर-मस्जिद का उपयोग समूहों और प्रवृत्तियों के रूपक की तरह भी किया गया है। इस चयन विशेष में उन कविताओं का संकलन किया गया है, जहाँ मंदिर प्रमुख विषय या संदर्भ की तरह आए हैं।

क्या प्रीति का लक्षण यही है कि पुरुष स्त्री को काँच की गुड़िया के समान संभाल कर रखे? वस्तुतः अपने जैसा ही उसे बनाना सच्चे प्रेम का लक्षण है। इसलिए मुझे अपने जैसा ही श्रमजीवी बना लो क्योंकि घर मंदिर नहीं है और मैं गृहिणी हूँ, देवी नहीं।

शिक्षा का विरोधाभास यही है कि जैसे ही व्यक्ति जागरूक होने लगता है, वह उस समाज की जाँच करना शुरू कर देता है जिसमें उसे शिक्षित किया जा रहा है।

हमारे यहाँ के मज़दूर, चित्रकार तथा लकड़ी और पत्थर पर काम करने वाले भूखों मरते हैं तब हमारे मंदिरों की मूर्तियाँ कैसे सुंदर हो सकती हैं?

अपने मंदिरों को अछूतों के लिए खोलकर सच्चे देव-मंदिर बनाइए। आपके ब्राह्मण-ब्राह्मणेतर के झगड़ों की दुर्गंध भी कँपकँपी लाने वाली है। जब तक आप इस दुर्गंध को नहीं मिटाएँगे, तब तक कोई काम नहीं होगा।
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संपूर्ण पृथ्वी ही माँ का खप्पर है। अखिल विश्व ब्रह्मांड ही सर्वव्यापिनी, सर्वशक्तिमती, सृष्टि और मरण की क्रीड़ा में निरत माँ भवानी का मंदिर है।

मंदिर की कोण-शिला उसकी नींव में सबसे नीचे गड़े हुए पत्थर से ऊँची नहीं है।