सारी कलाएँ एक-दूसरे में समोई हुई हैं, हर कला-कृति दूसरी कलाकृति के अंदर से झाँकती है।
संगीत, संवेदनाएं, पौराणिक कथाएँ, समय के साथ ढ़ल चुके चेहरे और कुछ जगहें हमें कुछ बताना चाहते हैं, या हमें कुछ बता रहे हैं जिनसे हमें चूकना नहीं चाहिए था या वे हमसे कुछ कहने वाले हैं, एक रहस्य का बहुत क़रीब से प्रकट होना, जिसे बनाया नहीं, जो शायद एक सुन्दर घटना है।
कला हमेशा मनुष्य का चुनाव करती है, जो मूर्त है, कला सैधान्त्तिक नहीं होती।
मैं अपने चित्रों को स्वप्न में देखता हूँ और अपने स्वप्नों के चित्र बनाता हूँ।
चीज़ों को देर तक देखना तुम्हें परिपक्व बनाता है और उनके गहरे अर्थ समझाता है।
आधुनिकता एक मूल्य नहीं है, मूल्य के प्रति एक दृष्टि है।
जो प्रश्न हमेशा मेरे दिमाग़ में घूमता रहता है, वह यह है: मैं किस चीज़ में बेहतर हूँ। क्या मैं किसी भी तरह से किसी भी काम के लिए उपयोगी नहीं हूँ।
नीले को समझने के लिए पहले तुम्हें पीले और नारंगी को समझना होगा।
साहित्य, लालित्य के बचाव में प्रयत्नशील बने रहने की भी भूमि है।
कला उनके लिए सान्त्वना है जिन्हें जीवन ने तोड़ दिया है।
एक अच्छा चित्र एक अच्छे कर्म के समान है।
मैं उसी वक़्त ख़ुद को ज़िन्दा पाता हूँ जिस वक़्त मैं चित्र बना रहा होता हूँ।
एक चित्र में जिसे रंग कहते हैं, उसे ही जीवन में उत्साह कहते हैं।
हर चीज़ की जड़ चित्र है।
यदि तुम्हारे भीतर से एक आवाज़ आती है कि तुम चित्र नहीं बना सकते तब किसी भी तरह से तुम्हें चित्र बनाने चाहिए, और फिर वह आवाज़ शांत हो जाएगी।
आधुनिकतावाद भले ही अलग-अलग टुकड़ों और बारीकियों में सफल रहा हो, सारत: वह विफल हो गया।
जागृत राष्ट्र में ही विलास और कलाओं का आदर होता है।
कविता के रंग चित्रकला के प्रकृति-रंग नहीं होते।
कोई भी कला सबसे पहले रचनात्मकता का अनुभव है। रचनात्मकता ही एक कला का प्रमुख विषय (content) होता है।
स्वभाव ही कला है।
श्रेष्ठ कलाओं में अंतर्विरोध नहीं होता, विभिन्नताओं का समन्वय और सहअस्तित्व होता है।
किसी भी कला का जीवन अपने में अकेला होते हुए भी संदर्भ-बहुल भी होता है।
कला कैलेंडर की चीज़ नहीं है।
कला—हर महत्वपूर्ण कलाकृति—संयोग को अनिवार्य में बदलने की कोशिश है।
देखना और काम करना-यहाँ कितना अलग है। आप चारों तरफ़ नजरें दौड़ाइए और बाद में उस पर सोचिए, यहाँ सब कुछ तक़रीबन एक ही जैसा है।
वास्तविक कला कभी अशिव नहीं होती।
अनुभूति की अभिव्यक्ति ही कला का रूप धारण करती है।
आख़िरकार ख़तरे उठाने और अनुभव के उस छोर तक पहुँचने से ही कलाकृतियों का निर्माण सम्भव हो पाता है, जिससे आगे कोई और नहीं जा सकता। इस यात्रा में हम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते हैं हमारा अनुभव निजी, वैयक्तिक और विलक्षण होता जाता है और इससे जो चीज़ सामने आती है वह इसी विलक्षणता की लगभग हूबहू अभिव्यक्ति होती है।
कला की आत्मा है सौंदर्यानुभूति।
जीनियस की प्रशंसा नहीं होती। या तो उसकी निंदा होती है या फिर applause होता है। प्रशंसा (Praise) सदैव ‘मीडियाकर’ की होती है। मसलन यह बहुत अच्छा पढ़ाता है, या उसका स्वभाव बहुत अच्छा है या वह बड़ा सज्जन है। ये सारे शब्द और विशेषण ‘मीडियाकर’ के पर्याय हैं।
कला में आप 'बहुत अच्छा' के भीतर ही रहते हैं। और जब तक आप इसके भीतर रहते हैं यह बढ़ता ही रहता है और आपको पार कर आगे निकल जाता है। मुझे लगता है कि सर्वोच्च अन्तर्दृष्टि और सूझ उसे ही हासिल होती है जो अपने काम के भीतर रहता है और वहाँ टिका रहता है, लेकिन जो उनसे दूरी बनाये रखता है वह उन पर अपनी पकड़ नहीं रख पाता।
कलात्मक महत्वाकांक्षा घातक होती है—प्रियजनों को संतप्त करती है।
कुछ चीजें स्वाभाविक रूप से इतनी आकर्षक होती हैं कि उनके आगे कुछ और नहीं टिकता। ऐसा माना जाता है कि अपने काम के स्वरूप को लेकर हमारा स्पष्ट नज़रिया होना चाहिए, उस पर मज़बूत पकड़ हो, और सैकड़ों ब्योरे तैयार करके उसे समझना चाहिए। मैं महसूस करता हूँ और मुझे पक्का विश्वास है कि वैन गॉग को भी किसी मोड़ पर ऐसा अहसास जरूर हुआ होगा कि अभी तक कुछ नहीं हुआ है, सब कुछ मुझे ही करना है।
1877 में ‘पेटर’ ने दृढ़ता से कहा था कि सभी कलाएँ संगीत का स्तर हासिल करने की कामना रखती हैं क्योंकि केवल, वह ही शुद्ध रूप है। संगीत, आनंद-की-दशाएँ, पौराणिक कथाएँ, काल से पके-तपे-घिसे चेहरे, कुछेक धुँधलके, और कुछेक विशिष्ट स्थान कुछ कहने की कोशिश करते हैं, या ऐसा कुछ कह चुके जिसे हम पकड़ नहीं पाए, या कुछ कहने को मुँह खोले हैं; 'कुछ' प्रकट होने की यह आसन्नता लेकिन वह 'कुछ' प्रकट हो नहीं, शायद यही सौंदर्यात्मक फेनोमना है।
संस्कृति मानव-चेतना का सार पदार्थ है।
निश्चय ही, हमारे पास एक उच्चतम स्तर पाने के लिए अपना सब कुछ झोंक देने और दाँव पर लगा देने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है। लेकिन जब तक वह चीज़ कलाकृति में आ न जाए, तब तक हम उसके बारे में मौन रखने के लिए बाध्य हैं।
किसी कृति की अंतर्वस्तु का विश्लेषण नहीं करना चाहिए, बल्कि अंतर्वस्तु के रूप का विश्लेषण करना चाहिए।
कला मनुष्यत्व का चरम उत्कर्ष है।
कला का मूल उत्स आनंद है।
कला न सुनीतिमूलक है और न दुर्नीतिमूलक।
कला-सृष्टि जीवन की सार्थकता है। जीवन से उसे अलग देखना अपराध है।
कला वह विज्ञान है, जिसे स्पष्ट कर दिया गया है।
कला, चेतन और अचेतन का परिणय है।
सभी मनुष्य बुद्धिजीवी हैं, लेकिन सभी मनुष्य समाज में बुद्धिजीवियों का कर्म नहीं करते।
एक फ़िल्म को कला तभी कह सकते हैं, जब उसके पुर्ज़े पेंसिल और पेपर जितने किफ़ायती हों।