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जिस तरह लियोनार्डो दा विंसी ने इंसानी शारीरिक रचना विज्ञान का अध्ययन किया और मुर्दा शरीरों को क़रीब से समझा, उसी तरह मैं आत्माओं के मनोभावों को पढ़ने की कोशिश करता हूँ।
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किसी भी प्रॉपगैंडा मॉडल में खुले बाज़ार की मान्यताओं में एक प्रारंभिक विश्वसनीयता होती है। ज़ाहिर तौर पर, प्राइवेट मीडिया, वे बड़े कोर्पोरेट हैं जो अन्य व्यापारों (विज्ञापनदाताओं) को एक प्रोडक्ट (पाठक और दर्शक) बेच रहे हैं। राष्ट्रीय मीडिया केवल अभिजात्य वर्ग के मुद्दों और धारणों पर ध्यान देती है। इससे जहाँ एक तरफ़, विज्ञापनों के चयन के लिए बढ़िया ‘प्रोफ़ाइल’ बनाने में मदद मिलती है, वहीं दूसरी तरफ़ ये निजी और सामाजिक क्षेत्रों में निर्णय-निर्धारण में भी ज़रूरी भूमिका निभाते हैं। अगर राष्ट्रीय मीडिया, दुनिया का एक संतोषजनक यथार्थवादी चित्रण नहीं करती तो वह अपने अभिजात्य दर्शकों की ज़रूरतों को पूरा करने में असमर्थ मानी जाएगी। यही मीडिया, दुनिया की जो व्याख्या करती है, उसमें इन अभिजात्य लोगों से भरे हुए सरकारी और निजी संस्थानों, ख़रीदारों, विक्रेताओं आदि की ज़रूरतों और चिंताओं का चित्रण भी उनका ‘सामाजिक उद्देश्य’ है।
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टेलीविज़न पर बड़े कॉर्पोरेट विज्ञापनदाता शायद ही कभी ऐसे कार्यक्रमों को प्रायोजित करते हैं जो कॉर्पोरेट गतिविधियों की गंभीर आलोचनाओं में संलग्न होते हैं, फिर चाहे पर्यावरण के स्तर में गिरावट की समस्या हो, चाहे सेना या औद्योगिक क्षेत्र के कामकाज के तरीक़े पर कोई बात कर रहा हो या कोई, तीसरी दुनिया में होने वाले तानाशाही रवैये के कॉर्पोरेट समर्थन और उनके द्वारा उठाए जाने वाले लाभ पर बात करे।
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