मुक्ति का अर्थ किसी विद्यमान वस्तु का विनाश करना नहीं है, बल्कि केवल अविद्यमान और सत्य मार्ग के अवरोधक कोहरे का निवारण करना है। जब अविद्या का यह अवरोध हट जाता है, तभी पलकें ऊपर उठ जाती हैं—पलकों का हटना आँखों की क्षति नहीं कहा जा सकता।
एक सुसंस्कृत दिमाग़ को अपने दरवाज़े और खिड़कियाँ खुली रखनी चाहिए।
हमारे जीवन की एकमात्र साधना यही है कि हमारी आत्मा का जो स्वभाव है, उसी को हम बाधा मुक्त बना लें।
हम जिससे मुक्त होकर बाहर निकलकर नहीं आएँगे, उसे हम नहीं प्राप्त कर पाएँगे।
अगर मैं कहूँ; मनुष्य मुक्ति चाहता है, तो यह मिथ्या बात होगी। मनुष्य मुक्ति की अपेक्षा बहुत सारी चीज़ें चाहता है। मनुष्य अधीन होना चाहता है।
आत्मिक साधना का एक अंग है, जड़ विश्व के अत्याचार से आत्मा को मुक्त करना।
मनुष्य का इतिहास साक्षी है कि विराग मनुष्य की आत्मा में बहुत गहरा बसा हुआ है।
अहं अपनी मृत्यु के द्वारा आत्मा के अमरत्व को व्यक्त करता है।
त्याग के द्वारा हम मुक्त होते हैं।
जीवन का जाल कभी-कभी बहुत जटिल हो जाता है; संसार का प्रवाह कभी-कभी प्रलय की भँवर में हमें खींचता रहता है, तब मनुष्य व्याकुल होकर कह उठता है—मुक्ति दो, मुक्तिदाता, मुझे मुक्ति दो!
सतिगुरु जीव को मुक्ति प्रदान करता है और परमात्मा के ध्यान में लगाता है। इस प्रकार हरिपद को जानकर जीव प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं।
जिन समाजों में नारी अपनी मुक्ति के लिए छटपटा रही थी, उनमें द्रौपदी को अपने लिए प्रेरणा और मुक्ति का प्रतीक माना गया।
विज्ञान की साधना जिस प्रकार हमारे प्राकृतिक ज्ञान को बँधनों से मुक्त कर देती है, वैसे ही मंगल की साधना हमारे प्रेम, हमारे आनंद के बँधनों से मुक्त कर देती है।
बाहर भटकते हुए जीव को गुरु द्वारा ही हृदय-महल में वापस लाया जा सकता है, और मिलाने वाला प्रभु स्वयं ही मिला देता है।
शाप हमें यातना देता है, हमें मांजता है और इस योग्य बनाता है कि हम शुद्ध होकर शाप से उबरें। इसीलिए शाप पवित्र है और शिरोधार्य है।
छुट्टा हो जाने पर भी बहुत सुख मिलता हो, ऐसा कहना कठिन है।
मुक्ति व्यापक तथा व्यापकतर क्रियाशीलता का दूसरा नाम है।
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क़ाज़ी, ब्राह्मण एवं योगी ये तीनों ही जीवों हेतु विनाश का बंधन हैं।
अगर हम कर्त्ता होना चाहते हैं तो हमें मुक्त होना होगा।