
न शरीर तट है, न मन है। उन दोनों के पीछे जो चैतन्य है, साक्षी है, द्रष्टा है, वह अपरिवर्तित नित्य बोध मात्र ही वास्तविक तट है। जो अपनी नौका की उस तट से बाँधते है, वे अमृत को उपलब्ध होते है।

सुकवि के वचन अर्थादि का विचार किए बिना ही आनंदमग्न कर देते हैं, पुण्यमयी नदियाँ स्नान के बिना ही दर्शनमात्र से ही पवित्र कर देती हैं।

समूचे जनसमूह में भाषा और भाव की एकता और सौहार्द का होना अच्छा है। इसके लिए तर्कशास्त्रियों की नहीं, ऐसे सेवाभावी व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो समस्त बाधाओं और विघ्नों को शिरसा स्वीकार करके काम करने में जुट जाते हैं। वे ही लोग साहित्य का भी निर्माण करते हैं और इतिहास का भी।

उपासना बाह्य आवरण है उस विचार-निष्ठा का, जिसमें हमें विश्वास है। जिसकी दुःख-ज्वाला में मनुष्य व्याकुल हो जाता है, उस विश्व-चिता में मंगलमय नटराज के नृत्य का अनुकरण, आनंद की भावना, महाकाल की उपासना का बाह्य स्वरूप है और साथ ही कला की, सौंदर्य की अभिवृद्धि है, जिससे हम बाह्य में, विश्व में, सौंदर्य-भावना को सजीव रख सके हैं।

आनंदमय आत्मा की उपलब्धि विकल्पात्मक विचारों और तर्कों से नहीं हो सकती।

शास्त्र कटु औषधि के समान अविद्यारूप व्याधि का नाश करता है। काव्य आनंददायक अमृत के समान अज्ञान रूप रोग का नाश करता है।

कवि हमारे सामने असौंदर्य, अमंगल, अत्याचार, क्लेश इत्यादि भी रखता है, रोष, हाहाकार, और ध्वंस का दृश्य भी लाता है। पर सारे भाव, सारे रूप और सारे व्यापार भीतर-भीतर आनंद-कला के विकास में ही योग देते पाए जाते हैं।

दर्शन तर्क-वितर्क कर सकता है और शिक्षा दे सकता है, धर्म उपदेश दे सकता है और आदेश दे सकता है; किंतु कला केवल आनंद देती है और प्रसन्न करती है।

दुःख के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनंद वर्ग में उत्साह का है।

मुख को ही हँसाने वाली मित्रता कोई मित्रता नहीं है। हृदय को आनंदित करने वाली मित्रता ही मित्रता है।

सत्काव्य की रचना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में प्रवीणता, कलाओं में प्रवीणता, आनंद व यश प्रदान करती है।

मैं प्रकृति का पुजारी हूँ और मनुष्य को उसके प्राकृतिक रूप में देखना चाहता हूँ, जो प्रसन्न होकर हँसता है, दुखी होकर रोता है और क्रोध में आकर मार डालता है। जो दुःख और भुख दोनों का दमन करते हैं, जो रोने को कमज़ोरी और हँसने को हल्कापन समझते हैं, उनसे मेरा कोई मेल नहीं। जीवन मेरे लिए आनंदमय कीड़ा है। सरल, स्वच्छंद, जहाँ कुत्सा, ईर्ष्या, और जलन के लिए कोई स्थान नहीं।

समस्त संसार को संतप्त कर देने में समर्थ सूर्य के तेज (की किरणें) त्रिभुवन के नेत्र को आनंदित करने वाले पद्म-समूह में आकर ठंडे पड़ जाते हैं।

योगी न होते हुए भी सच्चा कलाकार वितर्क का अतिक्रमण करके विचार और आनंद की भूमिकाओं के बीच पेंगें मारता रहता है। साधना के अभाव के कारण वह किसी एक जगह टिक नहीं सकता, परंतु थोड़ी देर के लिए उसको सत्य की जो आभा देख पड़ती है, जड़ चेतन के आवरण के पीछे अर्द्ध-नारीश्वर की जो झलक मिलती है, वह उसको इस जगत के ऊपर उठा देती है, उसके जीवन को पवित्र और प्रकाशमय बना देती है।

परिश्रम के पश्चात् नींद, तूफ़ानी समुद्र के पश्चात् बंदरगाह, युद्ध के पश्चात् विश्राम और जीवन के पश्चात् मृत्यु अत्यधिक आनंदप्रद होते हैं।

जिस कविता से जितना ही अधिक आनंद मिले, उसे उतना ही अधिक ऊँचे दरजे़ की समझना चाहिए।

भक्ति में बड़ी भारी शर्त है निष्काम की। भक्ति के बदले में उत्तम गति मिलेगी, इस भावना को लेकर भक्ति हो ही नहीं सकती। भक्ति के लिए भक्ति का आनंद ही उसका फल है।