कथाएँ : चोर की माँ और आलू जी से मुलाक़ात
पुष्पराज
13 अक्तूबर 2025

चोर की माँ
पटना में ग़रीबों के एक मसीहा चिकित्सक थे। उनके पास प्रदेश के सुदूर इलाक़े के बहुत सारे ग़रीब रोग-व्याधि, दुख-संताप लेकर आते थे। ग़रीबी को सबसे बड़ी बीमारी मानने वाले मसीहा डॉक्टर के पास से कभी कोई निराश नहीं लौटता था।
एक दिन एक दिव्यांग बूढ़ी औरत हाथों को अशक्त पाँवों के साथ घसीटते हुए, तीन सौ किलोमीटर दूर से उनके पास पहुँची। डॉक्टर साहब ने पूछा कि रोग क्या है। उसने कहा कि वह उनसे कुछ कहने आई है :
मेरा बेटा बीस वर्षों से गाँव से ग़ायब था। मैं चाहती हूँ कि मरने से पहले उसे एक बार अपनी आँखों से देख लूँ। मैंने मुश्किल से उसका पता लगाया। मुझे राहत मिली कि चलो मेरा बेटा कहीं ज़िंदा तो है। वह लोगों से बताता था कि वह पटना में रिक्शा चलाता है, लेकिन पटना में मेरे इलाक़े के रिक्शावालों ने बताया कि वह रिक्शा नहीं चलाता है। रिक्शा चालक उसे रैन-बसेरे में सोने भी नहीं देते हैं। यह जानकर मेरी चिंता बढ़ गई थी कि मेरा बेटा आख़िर पटना में करता क्या है। कई दिनों तक इलाक़े के रिक्शा चालकों के साथ उसे पटना में खोजती रही। रिक्शावाले सबकुछ जानते थे, पर वे सब मुझसे छुपा रहे थे। बहुत खोजने के बाद अभगला एक खटाल के पीछे सोता हुआ मिला। मैंने पकड़कर उसे दबोच लिया। उसके सीने से लिपटकर रोने लगी।
वह आगे बोली :
लेकिन डॉक्टर साहब जब मैंने उससे पूछा कि तुम यहाँ करते क्या हो? वह गर्दन घुमाकर उल्टी आँखों से जैसे दिन में चाँद ढूँढ़ने लगा। मेरे पेट में पला औलाद मुझसे आँख मिलाकर बात करने की हिम्मत नहीं कर रहा था।
हठात उसने मुझसे कहा, “मैं चोरी करता हूँ।”
मुझसे रहा नहीं गया। मैंने कहा, चोरी और सीनाज़ोरी! उसके मुँह पर एक झापड़ मारा और उसे थूक दिया। कह दिया कि तुम मेरे लिए मर चुके हो। मेरी कोख में पला मेरा बेटा चोर कैसे हो गया। डॉक्टर साहब मैंने इस जन्म में कोई ऐसा पाप तो नहीं किया कि मेरी कोख का बेटा चोर हो जाए। अब मैं बेफ़िक़्र, निश्चिंत, शांति के साथ मरने के लिए अपने गाँव जा रही हूँ। मैं आपसे यही कहने आई कि मेरा बेटा चोर हो गया है। क्या मैंने चोर बनने के लिए ही अपनी औलाद को दूध पिलाकर बड़ा किया था।
वह स्त्री डॉक्टर साहब से विदा होते हुए बड़बड़ाते हुए फूट-फूट कर रोती रही। डॉक्टर साहब मेरा बेटा चोर हो गया है। मैं इसी चोर बेटे का मुँह देखने के लिए अब तक ज़िंदा थी।
“पूत कपूत तो क्यों धन संचय,
पूत सपूत तो क्यों धन संचय”
ग़रीबों के मसीहा चिकित्सक डॉक्टर पी. गुप्ता के पास ऐसे बहुत सारे क़िस्से थे, जिसमें वे बताते थे कि ग़रीब माताएँ कभी चोर बेटा पैदा नहीं करती हैं।
कोई किस तरह चोर बनता है। कौन एक श्रमजीवी को चोरजीवी बनाता है? चोर माँ के गर्भ से नहीं, उस व्यवस्था की माँद से जन्म लेते हैं, जिसकी जड़ें धरती के नीचे नहीं, हुकूमत की शिखा से जुड़ी होती है। इस रहस्य को जानना ही पत्रकारिता का धर्म है।
इस कथा को पढ़ने के बाद किसी को यह नहीं पूछना चाहिए कि बेटा चोर हो गया तो उसे जन्म देने वाली माँ का क्या दोष था।
~
आलू जी से मुलाक़ात
दरअस्ल, दशहरे की देर रात मुझे टहल लेने की इच्छा हुई। कच्ची तालाब के किनारे टहलते हुए, जब मैं मेला किनारे के रास्ते से लौट रहा था तो एक इंसान रात के साढ़े ग्यारह बजे सिर्फ़ आलू बेच रहा था। मुझे लगा कि इससे प्रश्न पूछने की बजाय इसे दूर से देखा जाए।
मेरे मन में प्रथम प्रश्न आया था कि मिठाइयों के मौसम में आलू क्यों बेच रहे हो?
दूसरा प्रश्न था कि क्या देर रात आलू के ख़रीददार आएँगे?
मैंने सोचा—इस इंसान से पूछना क्यों? देखते रहो। स्वतः सवालों का जवाब मिल जाएगा।
एक ग्राहक आया फिर और आए। एक किलो आलू बीस रुपए प्रति किलो। आलू मुश्किल से दो किलो बच गया था। पंद्रह मिनट तक आलू के ख़रीददार और विक्रेता के सुकून को देखकर मैं लौटते हुए रोने लगा।
अनुरोध है कि आप पढ़ते हुए नहीं रोएँगे।
ख़रीददार भवन निर्माण के अकुशल मज़दूर और नगर पालिका के सफ़ाई कर्मी थे। मैंने ख़रीददार और विक्रेता के मौन संवाद को सुनने की कोशिश की। दोनों एक-दूसरे से अच्छी तरह परिचित थे। अगर आलू विक्रेता मेला घूमने की जल्दी में अपनी गद्दी समेट कर जल्दी घर चला गया होता तो देर रात कठिन श्रम के बाद लौट कर घर आए श्रमिक भूखे सो जाते।
मेरे प्रश्न का जवाब मिल गया कि वह विक्रेता देर रात सिर्फ़ आलू ही क्यों बेच रहा था।
मज़दूर घर गए। उन्होंने आलू को धोकर, काटा और पकाया। उन्होंने फिर देर रात भात के साथ आलूदम लपेटकर खा लिया। मैं कमरे में लौट आया था पर उन्हें खाते हुए देखता रहा। मैंने देखा कि वे आलू को मिठाइयों से ज़्यादा चाव से चबा रहे थे। उन्हें खाते हुए आलूदम और भात से इत्र की तरह ख़ुशबू महसूस हो रही थी।
दुर्गा मेला की देर रात आलू की ख़रीद-बिक्री से मैं इतना अधिक सम्मोहित हुआ कि मैं आलू को सर्वहारा के जीवन का सबसे बड़ा रक्षक मानने लगा हूँ। मैं यह नहीं चाहता हूँ कि आप बिहार की राजधानी पटना में देर रात आलू ख़रीदने-बेचने वाले की जातियों का पता कर बिहार की अर्थव्यवस्था के बारे में कोई विवेचना करें।
मेरा माथा तब से ठनक रहा है कि आम को सभी फलों का राजा घोषित करते हुए आलू के बारे में कोई विवेचना क्यों नहीं की गई थी? मैं आलू को ग़रीबों की मिठाई और सब्जियों का राजा घोषित करना चाहता हूँ। अगर मुझे विधायक बनने की इच्छा हुई तो मैं नोट बाँटने की बजाय आलू बाँटकर विधायक बनने की कोशिश करूँगा।
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