रोग पर उद्धरण
रोग-पीड़ा-मृत्यु मानव
के स्थायी विषाद के कारण रहे हैं और काव्य में अभिव्यक्ति पाते रहे हैं। इस चयन में रोग के विषय पर अभिव्यक्त कविताओं का संकलन किया गया है।
पुरुष जब बिस्तर में बेकार हो जाए, बेरोज़गार हो जाए, बीमार हो जाए तो पत्नी को सारे सच्चे-झूठे झगड़े याद आने लगते हैं। तब वह आततायी बन जाती है। उसके सर्पीले दाँत बाहर निकल आते हैं।
बुख़ार की दुनिया भी बहुत अजीब है। वह यथार्थ से शुरू होती है और सीधे स्वप्न में चली जाती है।
शरीर के महत्त्व को, अपने देश के महत्त्व को समझने के लिए बीमार होना बेहद ज़रूरी बात है।
आसक्तियाँ और रोग—ये दोनों वस्तुएँ आदमी को पराक्रमी और स्वाधीन करती हैं।
सोचते रहो। उदास रहो और बीमार बने रहो।
बीमारी और बुढ़ापा—एक भयानक जोड़ा।
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