डर पर उद्धरण
डर या भय आदिम मानवीय
मनोवृत्ति है जो आशंका या अनिष्ट की संभावना से उत्पन्न होने वाला भाव है। सत्ता के लिए डर एक कारोबार है, तो आम अस्तित्व के लिए यह उत्तरजीविता के लिए एक प्रतिक्रिया भी हो सकती है। प्रस्तुत चयन में डर के विभिन्न भावों और प्रसंगों को प्रकट करती कविताओं का संकलन किया गया है।
भय का राज्य पल भर में फैल जाता है।
मेरा डर मेरा सच एक आश्चर्य है।
मुझे अपनी कविताओं से भय होता है, जैसे मुझे घर जाते हुए भय होता है।
लोग भूल जाते हैं दहशत जो लिख गया कोई किताब में।
डायरी में भी सब कुछ दर्ज नहीं किया जाता। उस डायरी में भी नहीं जो छपवाई नहीं जानी है। मतलब यह कि ख़ुफ़िया डायरी पर भी यह ख़ौफ़ हावी रहता है कि कोई मुझे पढ़ लेगा।
डरने में उतनी यातना नहीं है जितनी वह होने में जिससे सबके सब केवल भय खाते हों।
मंच का मोह मुझे नहीं, भय है। इस भय ने मुझे कई प्रलोभनों से बचाया है।
जीवन निर्णय नहीं निरंतर भय है।
मैं ठीक-ठाक कारण तो नहीं बता सकता, पर इस ‘शास्त्र’ शब्द से मुझे डर लगता है—शायद इसलिए कि उसमें एक शासक की-सी ध्वनि है।
लोग भूल गए हैं एक तरह के डर को जिसका कुछ उपाय था। एक और तरह का डर अब वे जानते हैं जिसका कारण भी नहीं पता।
अविश्वास भी डर की निशानी है।
घटना से अधिक से अधिक उसकी संभानाएँ मन को अधिक शंकालु बनाती है।
...घटना का दर्द सीमित होने पर भी आसन्नता हमारे सारे व्यक्तित्व को निरंतर थरथराती होती है।
कोई भी घटना सीमित ही होती है, परंतु उसकी आसन्नता अधिक भयावह लगती है।