
मनुष्य जितना समझता है, उससे कहीं अधिक जानता है।

इसमें क्या ग़लत है कि अगर दुनिया में कोई आदमी ऐसा हो जिसे आपको समझने की कोशिश करना अच्छा लगता है?

स्त्री को कौन समझ सकता है।

तत्त्वज्ञ पुरुष को चाहिए कि वह अपमान को अमृत के समान समझकर उससे संतुष्ट हो और विद्वान मनुष्य सम्मान को विष के तुल्य समझकर उससे सदा डरता रहे।

जिस गाँव में गुण-अवगुण को सुनने व समझने वाला कोई नहीं है और जहाँ अराजकता फैली हुई है, हे राजिया! वहाँ रहना कठिन है।

पति को जो वास्तव में धर्म समझकर, परलोक की वस्तु समझकर ग्रहण कर सकी है, उसके पैरों की बेड़ी चाहे तोड़ दी और चाहे बंधी रहने दी, उसके सतीत्व की परीक्षा अपने-आप हो ही गई, समझ लो।

भास, कालिदास आदि के पालन करने वाले भास्कर कोश-गृहों को समझने में कठिन वेद रूपी पर्वत से निकलकर बहनेवाली निर्मल नदियों, उन्नत उपनिषद देवताओं के मंदिरों, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष वाले पौधों के खेतों, यशस्वी आर्यों के जयस्तम्भ श्रेष्ठ पुराणो! तुम्हें मेरा प्रणाम!

जब कोई व्यक्ति जानता है और दूसरों को समझा नहीं सकता, तो वह क्या करता है?

जब किसी के बारे में लिखो तो यह समझकर लिखो कि वह तुम्हारे सामने ही बैठा है और तुमसे जवाब तलब कर सकता है।

तृणतुल्य भी उपकार क्यों न हो, उसके फल को समझने वाले उसे ताड़ के समान मानेंगे।

नेत्र बोल सकते हैं और नेत्र समझ सकते हैं।

स्वामी पसंद-नापसंद की चीज़ नहीं है। उसे बिना कुछ विचारे मान लेना होता है।