
लोग, लोभ, काम, क्रोध, अज्ञान, हर्ष अथवा बालोचित चपलता के कारण धर्म के विरुद्ध कार्य करते तथा श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान कर बैठते हैं।

आतिथ्य का निर्वाह न करने की मूढ़ता ही धनी की दरिद्रता है। यह बुद्धिहीनों में ही होती है।

मुँह टेढ़ा करके देखने मात्र से अतिथि का आनंद उड़ जाता है।

यहाँ सच बोलना सबसे बड़ा अनादर है—आक्रामक प्रवृत्ति है।

मनुष्य और मनुष्य की मज़दूरी का तिरस्कार करना नास्तिकता है।

तत्त्वज्ञ पुरुष को चाहिए कि वह अपमान को अमृत के समान समझकर उससे संतुष्ट हो और विद्वान मनुष्य सम्मान को विष के तुल्य समझकर उससे सदा डरता रहे।

निरंतर परिवर्तित होता हुआ यह काल अनेक महापुरुषों को भी एक साथ अनादरपूर्वक गिरा देता है जैसे बड़े-बड़े पर्वतों की शेषनाग।

आज्ञा का उल्लंघन सद्गुण केवल तभी हो सकता है जब वह किसी अधिक ऊँचे उद्देश्य के लिए किया जाए और उसमें कटुता, द्वेष या क्रोध न हो।

जो मातृभाषा की अवगणना करता है, वह अपनी माता करता है।

मातृभाषा का अनादर माँ के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अपमान करता है वह स्वदेशभक्त कहलाने लायक नहीं।

हे भारत! यदि किसी गुरुजन को 'तू' कह दिया जाए तो यह उसका वध ही हो जाता है।

मुझे अपने अपमान में निर्वसन नग्न देखने का किसी पुरुष को अधिकार नहीं। मुझे मृत्यु की चादर से अपने को ढँक लेने दो।
