पत्र : अभिभावकों-सहयात्रियों-कला में विश्वास रखने वालों के नाम
सौरभ अनंत
03 जून 2025
भोपाल
25 मई 2025
प्रिय अभिभावकों, सहयात्रियो और कला में विश्वास रखने वालों के प्रति...
विहान ड्रामा वर्क्स : ‘स्वप्नयान—बाल नाट्य कार्यशाला’ में भाग लेने वाले सभी बच्चों के अभिभावकों को ढेर ढेर सारे प्रेम के साथ…
सबसे पहले, बड़े ही स्नेह और सम्मान के साथ मैं आप सभी अभिभावकों का हृदय से आभार व्यक्त करना चाहता हूँ, क्योंकि जो भी इन पिछले पच्चीस दिनों में घटा वो हमारे लिए केवल एक कार्यशाला नहीं थी... वह एक साझा स्वप्न था, जिसे आपने अपने विश्वास से ही संभव बनाया है। मैं आपसे यह कहना बहुत ज़रूरी समझता हूँ कि आपने अपने बच्चों को ‘स्वप्नयान—बाल नाट्य कार्यशाला’ में भेजकर न सिर्फ़ हम पर या कला पर भरोसा किया, बल्कि उन्हें एक रंगमंचीय यात्रा पर ‘चल पड़ने’ की वो आज़ादी दी, जिसकी नींव पर रचनात्मकता, संवेदनशीलता और आत्म-अभिव्यक्ति की दुनिया बसती है। शायद किसी को यह निर्णय बहुत ही साधारण-सा लगे, पर वास्तव में यह एक साहसिक और दूरदर्शी क़दम है—‘बचपन को उसकी संपूर्णता में जीने देने का।’
मुझे महसूस हुआ कि मैं कुछ बातें आपको पत्र के ज़रिये लिखूँ... और यह पत्र मैं महज़ औपचारिक धन्यवाद के लिए नहीं, बल्कि एक साझा सोच, और आपके मन के भीतर एक गहरे संवाद की शुरुआत के लिए लिखूँ—‘‘नाटक क्यों?’’
मैंने पिछले पंद्रह-सोलह वर्षों में देश के गाँव से लेकर महानगरों तक में बच्चों के साथ निरंतर काम करते हुए हर क्षण ही यह महसूस किया है कि अभिभावकों के मन में ये प्रश्न अक्सर उठता है—‘‘खेल, पढ़ाई, ट्यूशन, योग, नृत्य, संगीत... इन सबके बीच ‘नाटक’ को स्थान देना क्यों ज़रूरी है? क्या ये केवल मंच पर अभिनय करने भर का अभ्यास है? क्या बच्चे को अभिनेता बनाना है? या इसके पीछे कोई गहरी आवश्यकता, कोई बुनियादी मानवीय ज़रूरत छिपी है?’’
‘नाटक’ चूँकि मेरा प्यार है। तो इसको लेकर मेरा अपना दार्शनिक नज़रिया है... और ये मैं एक शिक्षक नहीं, एक साधक, एक रंगकर्मी और एक विद्यार्थी के रूप में कह रहा हूँ—‘‘कि रंगमंच केवल अभिनय नहीं, आत्म-अभिव्यक्ति है। यह आत्मा का संवाद है, शरीर और मन के माध्यम से।’’
फ़्रायड, जीन पियाज़े, और विगोट्स्की जैसे मनोवैज्ञानिकों ने यह माना है कि बच्चे कल्पना से नहीं, अनुभव से सीखते हैं... और रंगमंच वह स्थान है, जहाँ कल्पना और अनुभव का सबसे सुंदर संगम होता है। प्लेटो और अरस्तू जैसे दार्शनिकों ने सौंदर्यशास्त्र और नाट्य को आत्मा की शुद्धि का साधन कहा है।
रंगमंच बच्चे को विश्वास देता है कि वह बोल सकता है... और रंगमंच में बच्चा बोलता है—बिना डरे। चलता है—बिना रुके। गिरता है—पर हारता नहीं। वह किसी और का किरदार निभाते हुए धीरे-धीरे अपने असली ‘स्व’ के क़रीब आता जाता है।
जब वो मंच पर किसी चरित्र को जीता है, तब वह दुनिया के सारे रंग, दर्द, संघर्ष, हास्य और करुणा को अपने भीतर महसूस कर रहा होता है। इससे उसके भीतर सहानुभूति (Empathy) की भावना जन्म लेती है और मैं मानता हूँ, यह इस समय की सबसे ज़रूरी सामाजिक भावना है।
इस बीच मैंने प्रसिद्ध दार्शनिक रूडोल्फ़ स्टाइनर का एक कथन भी पढ़ा :
Receive the children in reverence, educate them in love, and send them forth in freedom.
मैंने उपरोक्त कथन पर रंगमंच की दृष्टि से विचार किया तो पाया कि जब हम बच्चों को ‘नाटक’ से जोड़ते हैं, तो हम उन्हें केवल अभिनय नहीं सिखाते; बल्कि उनके भीतर के अनुभवों को सम्मान देते हैं, स्नेह से उन्हें दिशा देते हैं और मंच पर अपनी बात कहने की आज़ादी देते हैं। नाटक उनके लिए आत्म-अभिव्यक्ति का एक ऐसा माध्यम बन जाता है, जहाँ वे ख़ुद को सुनना और समझना सीखते हैं। अपने ही विचारों, भावनाओं और व्यक्तित्व के सामने स्वतंत्र रूप से खड़े होना सीखते हैं।
नाटक के ज़रिये बच्चे अपने भीतर के डर को, झिझक को, संकोच को एक खेल की तरह तोड़ते हैं। ये उन्हें केवल बेहतर वक्ता नहीं, बेहतर मनुष्य बनने का अवसर देता है। उनके प्रश्न, उनकी कल्पना, उनकी चुप्पी, सबको एक जगह मिलती है—मंच पर।
मैंने माना है कि नाटक उन्हें ‘नायक’ नहीं, ‘मनुष्य’ बनाता है—जो सुनता है, महसूस करता है और सवाल करता है। यह वही बच्चा है, जो घर लौटकर आपसे कहता है—‘‘माँ, क्या मैं अपनी कहानी भी लिख सकता हूँ?’’
‘स्वप्नयान’ कोई गंतव्य नहीं, एक उड़ान है—कल्पना, अनुभव और आत्म-अन्वेषण की उड़ान। जो हमने और आपने मिलकर बच्चों को दी, ताकि वे अपने भीतर के संसार को पहचान सकें और बाहरी दुनिया से संवाद करना सीखें। मैं कामना करता हूँ कि आगे भी हमेशा आप इस तरह की ‘उड़ान’ अपने बच्चों को देते ही रहेंगे... न सिर्फ़ अपने और अपने परिवार के बच्चों को बल्कि ‘नाटक’ जैसे माध्यम को आप दुनिया और समाज के भीतर तक पहुँचाने में भी योगदान देंगे।
हर अभिभावक का एक छोटा-सा क़दम देश और दुनिया को थोड़ा और सुंदर बनाने की ताक़त रखता है, ऐसा मैंने अपनी समूची कला-यात्रा में महसूस किया है। मैं ‘रंगमंच’ की तरफ़ से हर उस माता-पिता के प्रति कृतज्ञ हूँ, जो अपने बच्चों को ‘कलाओं’ से जोड़ रहे हैं... और जो अब तक नहीं जोड़ पाए हैं, उनके प्रति आशान्वित हूँ। मेरा विश्वास है कि जो अभिभावक अपने बच्चे को रंगमंच की ओर ले जाते हैं; वे उन्हें केवल अभिनय नहीं, आत्मा की भाषा सिखाते हैं। जब बच्चा मंच पर चुपचाप खड़ा होता है, तब भी वह बोल रहा होता है—अपने भीतर के डर से, आकांक्षाओं से और कल्पना से।
सुकरात ने कहा था : Know thyself—अपने आपको जानो। रंगमंच उसी ज्ञान की यात्रा का पहला पड़ाव है। टैगोर मानते थे कि शिक्षा वह है, जो व्यक्ति को मुक्त करती है... और थिएटर, शायद बचपन में उस मुक्ति का सबसे जीवंत रूप है। महात्मा गांधी कहते थे : सृजनशीलता न केवल कला में, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में आवश्यक है, और बच्चे में इसे प्रोत्साहित करना हमारी ज़िम्मेदारी है।
उनकी इस बात से मुझे हमेशा ही लगा है—‘‘जीवन सचमुच एक बहाव है, और बच्चा यदि सृजनशील है; तो वो उस बहाव को समझेगा, उसका आनंद लेगा... न कि उसे विपत्ति समझकर जूझेगा।’’
तो आप सब अभिभावक—देश के किसी भी कोने में बैठे हुए अभिभावक—जो अपने बच्चों को इस यात्रा पर भेजते रहे हैं, यक़ीन मानिए आप उन्हें केवल एक कार्यशाला नहीं, एक संपूर्ण संस्कार दे रहे हैं। धन्यवाद है, आपकी उस दृष्टि के लिए; जो सिर्फ़ अंकों में नहीं, अभिव्यक्ति में भविष्य देखती है।
आपका बच्चा अगले कुछ वर्षों में डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक या कलाकार बने—यह उसकी यात्रा है। पर इस यात्रा में वह एक सजग, संवेदनशील, सोचने-वाला मनुष्य बने—यही रंगकर्म की भूमिका है।
अंत में, मैं यही कहना चाहूँगा कि नाटक सिर्फ़ मंच पर नहीं होता; वह जीवन में उतरता है—हाव-भाव में, रिश्तों में, बातचीत में और सोच में।
इस बार हमने साथ मिलकर जो बीज बोया है। उम्मीद है कि वह अपनी जड़ें जमाएगा... और जब वह बच्चा कभी जीवन की किसी कठिन घड़ी से गुज़रेगा, तब शायद मंच पर जिया हुआ एक क्षण, बोला गया कोई संवाद या गाया गया कोई गीत—उसकी अंतरात्मा में एक दीपशिखा की तरह प्रज्वलित होगा और उसे अपने भीतर के उजाले का स्मरण कराएगा।
आपके साथ, आपके विश्वास और सहयोग ने इसे संभव किया।
इसके लिए आपका शब्दों से भी परे आभार।
सादर,
सौरभ अनंत
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