
जो हिंदुस्तान में पैदा हुआ है उसका स्थान हिंदुस्तान में है—चाहे फिर वह किसी धर्म का हो।

हमारी राष्ट्र-भाषा वही हो सकती है, जो देवनागरी और उर्दू—दोनों लिपियों में लिखी जाती है।

केवल राष्ट्रीयता की भावना से उपजा हुआ स्वदेशी का विचार, विदेशियों के हित की उपेक्षा कर सकता है।
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तंग मज़हबों में सीमित न हो जाओ। राष्ट्रीयता को स्थान दो। भ्रातृत्व, मानवता तथा आध्यात्मिकता को स्थान दो। द्वैत-भावना की मलिन दृष्टि को त्याग दो- तुम भी रहो, मैं भी रहूँ।
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अभावों में मरने की अपेक्षा संघर्ष करते हुए मरना अधिक अच्छा है, दुःखपूर्ण और निराश जीवन की अपेक्षा मर जाना बेहतर है। मृत्यु होने पर नया जन्म मिलेगा। और वे व्यक्ति अथवा राष्ट्र जो मरना नहीं जानते, यह भी नहीं जानते कि जिया कैसे जाता है।

सभी के लिए एक क़ानून है अर्थात् वह क़ानून जो सभी क़ानूनों का शासक है, हमारे विधाता का क़ानून, मानवता, न्याय, समता का क़ानून, प्रकृति का क़ानून, राष्ट्रों का कानून।

दुनिया के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं किया गया है, हिन्दुस्तान में तो ऐसा था ही नहीं।

अपने मुँह से अपनी तारीफ़ करना हमेशा ख़तरनाक-चीज़ होती है। राष्ट्र के लिए भी वह उतनी ख़तरनाक है, क्योंकि वह उसे आत्मसंतुष्ट और निष्क्रिय बना देती है, और दुनिया उसे पीछे छोड़कर आगे बढ़ जाती है।

सबको अपने किए का फल भोगना पड़ता है—व्यक्ति को भी, जाति को भी, देश को भी।

सुंदर और उपयोगी वस्त्रों का निर्माण भारतवर्ष की राष्ट्रीय कला है।

यदि एक पुरुष को मार देने से कुटुंब के शेष व्यक्तियों का कष्ट दूर हो जाए और एक कुटुंब का नाश कर देने से सारे राष्ट्र में शांति छा जाए तो वैसा करना सदाचार का नाशक नहीं है।

भीड़ की सतही कार्यवाहियों की अपेक्षा, कला और साहित्य राष्ट्र की आत्मा को महान अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। वे हमें शांति और निरभ्र विचार के राज्य में ले जाते हैं, जो क्षणिक भावनाओं और पूर्वाग्रह से प्रभावित नहीं होते।

विचार और कर्म के क्षेत्रों में राष्ट्र का जो सृजन है वही उसकी संस्कृति है।

राष्ट्र की फूँक से राष्ट्रीयता का गौरव तो जल उठता है, किंतु फूलों का मुख नहीं खुलता है। राष्ट्र का बनाया हुआ है नेशनल पार्क—उसमें भी फूँक मारने से फूल नहीं खिलते हैं।

हम दुनिया में एक राष्ट्र के रूप में एकता प्राप्त किए बिना जीवित नहीं रह सकते हैं।

अब यदि हम ज्ञानपूर्वक और इच्छापूर्वक मरेंगे तो हमारा बलिदान हमें और हमारे समूचे राष्ट्र को ऊपर उठायेगा।

साहित्य यदि किसी राष्ट्र की संस्कृति का प्राण है और यदि संस्कृति चिरन्तन होती है, तो निस्सन्देह एक महान साहित्यिक की मान्यताएँ-विचारणाएँ चिरन्तन होती हैं।

राष्ट्र विप्लव होते-होते ईरान, असीरिया और मित्र वाले तो अपने प्राचीन साहित्य आदि के उत्तराधिकारी न रहे परंतु भारतवर्ष के आर्य लोगों ने वैसी ही अनेक आपत्तियाँ सहने पर भी अपनी प्राचीन सभ्यता के गौरव रूपी अपने प्राचीन साहित्य को बहुत कुछ बचा रखा और विद्या के संबंध में सारे भूमंडल के लोग थोड़े-बहुत उनके ऋृणी हैं।

ईश्वरीय प्रकाश किसी एक ही राष्ट्र या जाति की संपत्ति नहीं है।

राष्ट्र की कठिनतम परीक्षा अब है। यह राष्ट्र की सैनिक तैयारी की परीक्षा लेता है। यह इसकी अर्थ-नीति की उत्पादकता की परीक्षा लेता है। यह इसके जन-समाज के साहस की परीक्षा लेता है। स्वतंत्रता की इसकी संस्थाओं की परीक्षा भी यह लेता है।

नेशन नामक एक शब्द ने जितने पाप और विभीषिकाएँ अपने आवरण के नीचे दबा रखी हैं, उसे उठा देने पर मनुष्य के लिए मुँह छुपाने की भी जगह नहीं रहेगी।

यदि साधु-असाधुओं का पृथक् विभाग करने वाला राजा इस लोक में न होता, तो जैसे दिन अंधकार में विलीन हो जाता है, वैसे ही सब कुछ ताम में डूब जाता।

लोकतंत्र लोक-कर्त्तव्य के निर्वाह का एक साधन मात्र है। साधन की प्रभाव क्षमता लोकजीवन में राष्ट्र के प्रति एकात्मकता, अपने उत्तरदायित्व का भान तथा अनुशासन पर निर्भर है।

किसी राष्ट्र में स्त्रियों की स्थिति ही उसकी प्रगति का वास्तविक मापदंड है।

मनु ने राष्ट्र के मस्तक को गर्व से उँचा रखने के लिए लिखा है कि इस देश में जन्म लेनेवाले अग्रणी पुरुषों का चरित्र पृथ्वी के दूसरे देशों के लिए शिक्षा की वस्तु है।

अराजक देश में राष्ट्र की वृद्धि करने वाले नट और नर्तकों से युक्त समाज और उत्सव नहीं हो पाते।

सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में भारत एक है, राजनीतिक रूप में भले ही एक न हुआ हो।

जिस प्रकार शरीर के हित-अहित की प्रवर्त्तक आँख है, उसी प्रकार राष्ट्र में जो सत्य और धर्म हैं, उनका प्रवर्त्तक राजा है।

सही भारतीयता क्षुद्र, संकीर्ण, राष्ट्रीयता के दंभ से बिल्कुल अलग तथ्य है।

पृथ्वी पर नेशन का निर्माण तो सत्य के ज़ोर से हुआ, लेकिन नेशनलिज़्म सत्य नहीं।
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हमारा राष्ट्र स्वभाव से ही अतीतमुखी है।

राष्ट्र कला का जनक नहीं है, हो भी नहीं सकता है।

अंतरराष्ट्रीयता राष्ट्रों का राष्ट्रवाद है।
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केवल बल का प्रयोग तो अस्थायी होता है। यह क्षणभर को हरा सकता है किंतु इससे पुनः हराने की आवश्यकता समाप्त नहीं हो जाती और वह राष्ट्र, जिसे निरंतर जीतते ही रहना पड़े, शासित नहीं है।

वाल्मीकि हमारे राष्ट्रीय आदर्शों के आदि विधाता हैं।

आज भारतीय ज्ञान केवल भारत राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए अपरिहार्य नहीं है अपितु मानव जाति के पुनर्शिक्षण शक्षण के लिए भी।

किसी भी राष्ट्र की बहुत थोड़ी पुस्तकें पठनीय होती हैं।

मैं किसी एक राष्ट्र के विरुद्ध नहीं हूँ, बल्कि सभी राष्ट्रों के एक सामान्य विचार के विरुद्ध हूँ।
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इस जाति-बहिष्कार के खड्ग ने एकात्म—एकजीव—अखंड राष्ट्रशरीर के टुकड़े-टुकड़े करके उसे हज़ारों खंडों में विभक्त कर दिया है।

स्थूलरूप में जब एक राष्ट्र या समूह शक्तिशाली बनता है; तब वह औरों की मानसी हत्या करके ही उनके ऊपर अपने अधिकार की स्थापना कर पाता है। किंतु अध्यात्म-संस्कृति का मार्ग भिन्न है। उसमें हर एक को ऊपर उठाकर अपनी उन्नति की जाती है।
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