


न रूप, गौरव का कारण होता है और न कुल। नीच हो या महान उसका कर्म ही उसकी शोभा बढ़ाता है।

हमारी जन्मभूमि, धर्मभूमि, गौरवभूमि! तेरे लिए हमारे पूर्वजों ने मृत्यु का वरण किया। हे मातृभूमि! हम भविष्य के लिए तुझे अपना मस्तक, हृदय और हाथ अर्पित करते हैं।

जो परस्पर भेद-भाव रखते हैं, वे कभी धर्म का आचरण नहीं करते। वे सुख भी नहीं पाते। उन्हें गौरव नहीं प्राप्त होता तथा उन्हें शांति की वार्ता भी नहीं सुहाती।

क्रोध, हर्ष, अभिमान, लज्जा, उद्दंडता, स्वयं को बहुत अधिक मानना—ये सब जिस मनुष्य को उसके लक्ष्य से नहीं हटाते, उसी को पंडित कहा जाता है।

हम दुर्बल मनुष्य राग-द्वेष से ऊपर रहकर कर्म करना नहीं जानते, अपने अभिमान के आगे जाति के अभिमान को तुच्छ समझ बैठते हैं।

गुणवानों की गणना के आरंभ में खडिया जिसका नाम गौरवपूर्वक नहीं लिखती, ऐसे पुत्र से यदि माता पुत्रवती बनती है, तो वंध्या कैसी होगी?

हे भगवान! तेरी भक्ति के मार्ग में सब समान है। इस लोक व परलोक में तेरी ही सेवा सर्वश्रेष्ठ है। तू हमारे अभिमान को छीन ले, और नम्रता को दे। तू अपनी कृपा से यह लेन-देन कर।