
संसार में जन्मा मनुष्य, विद्वान और बलवान होने पर भी, मृत्यु को न जीत सकता है, न जीत सका है, और न जीत सकेगा।

लोगों को अपनी भाषा की असीम उन्नति करनी चाहिए, क्योंकि सच्चा गौरव उसी भाषा को प्राप्त होगा जिसमें अच्छे अच्छे विद्वान जन्म लेंगे और उसी का सारे देश में प्रचार भी होगा।

हे स्वामी! तुमने घी का व्यापार तो किया, किंतु खाया तेल ही है।


विद्या, शूरवीरता, दक्षता, बल और धैर्य—ये पाँच मनुष्य के स्वाभाविक मित्र बताए गए हैं। विद्वान् पुरुष इनके द्वारा ही जगत् के कार्य करते हैं।

मूर्ख मूर्खों के साथ रहते हैं और विद्वान् विद्वानों के साथ। समान शील और व्यसन वालों में मित्रता होती है।

बहुत विद्वान होने से मनुष्य आत्मिक गौरव नहीं प्राप्त कर सकता। इसके लिए सच्चरित्र होना परमावश्यक है। चरित्र के सामने विद्वत्ता का मूल्य बहुत कम है।

विद्वान होने से रचयिता होना अधिक अच्छा है; रचनाशीलता जीवन का सच्चा सारतत्त्व है।

जिस व्यक्ति में कल्पना है परंतु विद्वत्ता नहीं, उसके पंख हैं परंतु पैर नहीं।

विद्वानों का कहना है कि शरीरधारियों के लिए मरना स्वाभाविक है, जीना ही विकार है।

यदि आप विद्वान हैं, बलवान हैं और धनवान हैं तो आपका धर्म यह है कि अपनी विद्या, धन और बल को भी देश की सेवा में लगाओ। उनकी सहायता करो जो तुम्हारी सहायता के भूखे हैं। उनको योग्य बनाओ जो अन्यथा अयोग्य ही बने रहेंगे। जो ऐसा नहीं करते, वे अपनी योग्यता का उचित प्रयोग नहीं करते।

