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भक्ति काव्य पर उद्धरण

आर्य संस्कृति और आर्यों में ‘ऋग्वेद’ का प्रमुख देवता इन्द्र था। यद्यपि ब्रह्मा, विष्णु, महेश—तीनों का नाम लिया जाता है। ब्रह्मा की महिमा धीरे-धीरे घटती गई। इन्द्र की महिमा घटती गई और कृष्ण आते गए। इसका मूल स्रोत कहीं लोकजीवन से जोड़कर देखना चाहिए।

नामवर सिंह

उच्च वर्गों द्वारा भक्ति काव्य के आयत्तीकरण (Appropriation) की इस प्रक्रिया का ही एक रूप है—भक्ति आन्दोलन को मुस्लिम आक्रमणकारियों की प्रतिक्रिया के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश।

नामवर सिंह

भक्ति का कोषगत अर्थ है—विभाजन। जहाँ अलगाव है, वहीं भक्ति है। इसलिए भक्ति का एक अर्थ जो विभाजन है, वह जीवन और ब्रह्म का शाश्वत विभाजन है।

नामवर सिंह

तुलसीदास ने रामराज्य के रूप में एक यूटोपिया की सृष्टि की है। भक्त इस लोक को अपर्याप्त समझते थे। उन्होंने एक स्वप्न देखा था। स्वप्नदर्शी भी थे इसलिए उन्होंने एक ऐसे लोक की भी कल्पना की, कम-से-कम उसका स्वप्न देखा और समाज के सामने आदर्श रखा।

नामवर सिंह

प्राचीन समाज-व्यवस्था में चाहे आदमी जिस जाति का हो, लेकिन उस जाति को छिपाता नहीं था। उस जाति का होने में भी अपने-आपमें एक सम्मान अनुभव करता था। आज वह मनुष्य ज्यादा उपेक्षित, पीड़ित, दलित और पतित मान लिया गया है।

नामवर सिंह

भक्तों ने पहली बार यह स्थापित किया कि भक्त का महत्त्व जात के कारण नहीं, कुल के कारण नहीं, पद के कारण नहीं, सम्पत्ति के कारण नहीं, धर्म के कारण नहीं होता—बल्कि उसका महत्त्व होता है उसके भक्ति भाव के कारण। इसलिए वह व्यक्ति रूप में महत्त्वपूर्ण है।

नामवर सिंह

जिस प्रकार स्वच्छंद समाज का स्वप्न अंग्रेज कवि शेली देखा करते थे, उसी प्रकार का यह समाज सूर ने चित्रित किया है।

नामवर सिंह

वैष्णवों का कृष्ण—लोकल और क्लासिकल का संयुक्त रूप है।

नामवर सिंह

व्यक्ति मानव की गरिमा की स्थापना भारतीय इतिहास में पहली बार जिस दृढ़ता के साथ भक्त ने की, यह उसकी आधुनिकता का प्रमाण है।

नामवर सिंह

भक्ति कविता का संसार से जो सम्बन्ध है, मुझे एक किसान की टिनेसिटी (तपस्या) मालूम होती हैं कि तकलीफ़ होने के बावजूद खेत से जुड़ा है।

नामवर सिंह

भारतीय संगीत के इतिहास में भक्ति के आने के साथ भजन और कीर्तन से एक नए संगीत की शुरुआत हुई।

नामवर सिंह

आदमी की पहचान केवल नाम से ही नहीं होती, रूप से भी होती है। इसलिए भक्तों ने भगवान को रूप ही नहीं दिया बल्कि भगवान जिस देश में आए, उस देश के प्रत्येक प्रदेश को और उसकी अपनी भाषाई अस्मिता में आत्मसात् किया।

नामवर सिंह

छठी-सातवीं शताब्दी के आसपास भारतीय इतिहास में भक्ति की जो ऐतिहासिक क्रान्तिकारी घटना हुई थी, उसका जन्म लोकजीवन में हुआ था, लोकभाषा में हुआ था। उसका श्रेय आदि-अद्विज अब्राह्मणों को है। इसे दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों ने शुरू किया था।

नामवर सिंह

भक्ति के साथ नृत्य-कला का विकास हुआ।

नामवर सिंह

'भक्ति-काव्य' को केवल काव्य तक सीमित रखना, उसे अधूरा रखना है। भले ही आरम्भ उसका काव्य के रूप में हुआ है लेकिन अगर आप ध्यान दें कि उसका अन्य कलाओं में भी विस्तार हुआ।

नामवर सिंह

दक्षिण ने जिस कृष्ण की मूर्ति ‘श्रीमद्भागवत’ में गढ़ी और जो दक्षिण में रचा गया था—वह महाभारत के कृष्ण से अलग

नामवर सिंह

सच्चाई तो यह है कि भक्ति एक तरह से कविता में भाषा का नृत्य है। यह एक उन्माद है। चैतन्य महाप्रभु का सम्बन्ध साक्षात् रूप से उसके साथ जुड़ा हुआ है। वह भक्ति के आवेश में नाचने लगते थे।

नामवर सिंह

छठी शताब्दी के आसपास एक सांस्कृतिक शिफ्ट थी, एक परिवर्तन था, एक क्रान्ति हुई थी और इस क्रान्ति का ही एक प्रचलित नाम भक्ति है।

नामवर सिंह

हिन्दी के सूफी संतों ने लोककथाओं को अपने आदर्शों के लिए अपनाया। लोककथाओं को इस तरह अपनाने का उत्साह, हिन्दी के हिन्दू-भक्त कवियों में नहीं देखा गया।

नामवर सिंह

समूचे भारतीय चिन्तन और भारतीय संवेदना के शताब्दियों लंबे, वेद से लेकर आज तक के पूरे इतिहास पर दृष्टिपात करें तो एक महत्त्वपूर्ण बात दिखाई पड़ती है और वह है छठी से नवीं शताब्दी के बीच में एक शिफ्ट, अवसरण या परिवर्तन।

नामवर सिंह

भक्ति महारस है और यह 'नाट्यशास्त्र' के विभिन्न रसों में से एक है। वह रस ऑब्जेक्टिव निर्वैयक्तिक हो सकता है। कालिदास ने कहा है कि यह भावयिक रस है। इसमें भक्ति के अनुभव पर ज़ोर है। भाव पर है। 'भक्ति-भाव' शब्द का प्रयोग आम तौर पर व्यवहार में होता है।

नामवर सिंह

तुलसीदास कहते हैं ‘कबहूँ हौं यहि रहनि रहौंगो’— यह जो रहनि है, इसे ही कल्वर कहते हैं। यह रहनि यह नहीं है कि कैसे रहेंगे। यह नित्यकर्म करना नहीं है।

नामवर सिंह

तुलसीदास ने कहा कि केवल वह कीजिए, जो लोक-सम्मत हो, जो केवल लोगों को अच्छा लगे। वह कीजिए जो साधु सम्मत हो, अर्थात् विवेकपूर्ण हो, उचित हो, बुद्धिसंगत हो, सिद्धान्ततः सही हो। इसलिए लोकमत और साधुमत, दोनों को ध्यान में रखिए।

नामवर सिंह
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भक्ति के कारण मूर्तिकला का विकास हुआ है। भक्ति का स्थापन, विशेष रूप से दक्षिण के मन्दिरों में और क्रमशः उत्तर में भी हुआ है। चाहे कोणार्क में हुआ हो, चाहे खजुराहो के रूप में हुआ हो—एक नए स्थापत्य का विकास हुआ है।

नामवर सिंह

सम्प्रदायवाद सामन्तवाद का ही एक अस्त्र है और मध्यकालीन संत कवियों का सम्प्रदायवाद-विरोध, उनके व्यापक सामन्तवाद-विरोधी संघर्ष का ही एक अंग है।

नामवर सिंह

भक्त कर्म-बन्धन से मुक्ति नहीं चाहते थे। बार-बार जन्म लेना चाहते थे। भगवान के चरणों में प्रेम करना चाहते थे और मुक्ति का निरादार करते थे। यह अपने-आपमें प्रमाण है कि दु:खी रहते हुए भी इस संसार में उनकी आस्था थी।

नामवर सिंह

वह व्यवस्था अनाधुनिक है जिसमें किसी का महत्त्व; उसके कुल के कारण होता है, किसी का महत्त्व उसके पद के कारण होता है, किसी का महत्त्व उसकी जाति के कारण होता है, किसी का महत्त्व उसके धर्म के कारण होता है।

नामवर सिंह

भक्ति साहित्य, जात-पाँत के विरुद्ध विद्रोह करता है। जात-पाँत के खंडन का सबसे बड़ा प्रमाण है कि भक्ति भगवान के साथ भक्तों को स्पर्श कराना चाहता है।

नामवर सिंह

मैं यह कहना चाहता हूँ कि पहली बार भक्ति ने एक और बड़ा काम किया, वह यह कि देश ने अपनी भाषीय अस्मिता को उभारा।

नामवर सिंह

कबीर जैसा आदमी 'नाच रे मन मद नाच' कहते हुए नाचता हुआ-सा दिखाई पड़ता है।

नामवर सिंह

भक्ति अपने-आपमें टोटल कल्चर है, केवल कविता नहीं है।

नामवर सिंह

यदि देवता उत्तर में थे और भक्ति दक्षिण में हुई, तो दोनों का कायदे से विश्लेषण किया जाना चाहिए।

नामवर सिंह