समकालीनता की मारी आज की हिंदी आलोचना ने, कबीर को आध्यात्म-प्रेमी विदेशियों तथा उनके देशी सहयोगियों को सौंप दिया है, और तुलसीदास को 'जय श्रीराम' का नारा लगाने वाले शाखामृगों की मर्ज़ी पर छोड़ दिया है।
इधर जब से सांप्रदायिकता की महामारी फैली है और मस्जिद-मंदिर का झगड़ा खड़ा हुआ है; तब से कबीरदास का महत्त्व साधारण जनता के साथ-साथ, विद्वानों की भी समझ में आने लगा है।
कबीर ऐसे कवि हैं, जिन्हें किसी तरह की सांप्रदायिकता और कट्टरता न तो अपना बना सकती है और न पचा सकती है।
सूर के काव्य में प्रेम, कबीर से अधिक स्वाभाविक और जायसी से अधिक लौकिक है।
कारीगर कबीर के जीवन की कला ही, उनकी कविता की कला बन गई।
सूर को कबीर की तरह वात्सल्य और माधुर्य की अभिव्यक्ति के लिए; बालक तथा बहुरिया बनने की आवश्यकता नहीं है, और जायसी की तरह प्रेम की अलौकिक आभा दिखाने की चिंता भी नहीं।
कबीर के लोकधर्म में, व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्कर्ष से अधिक महत्त्वपूर्ण है—समाज में मनुष्यत्व का जागरण।
कबीर शास्त्रीय ज्ञान के बोझ से मुक्त है।
कबीर की कविता का लोक और उसका धर्म; दूसरे भक्त कवियों से अलग है, क्योंकि उनके जीवन का अनुभवलोक भी दूसरों से भिन्न है।
कबीर प्रत्येक लौकिक और अलौकिक वस्तु को जुलाहे की नज़र से देखते हैं। उनके लिए ईश्वर भी एक बुनकर ही है और उसकी यह दुनिया तथा मानव काया—‘झिनी-झिनी बीनी चदरिया है।’
बुद्ध की तरह कबीर भी मनुष्य से यही कहते हैं कि अपना दीपक स्वयं बनो।
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कबीर जब तक अपने रंग में मस्त होकर जीवन का ज्ञान सुनाता है, तभी तक वह कलाकार है। पर जब वह हमें अपने बौद्धिक दार्शनिक निर्गुणवाद के प्रति आस्था रखने के लिए आग्रह करता-सा दिख पड़ता है, वहीं वह कला का दृष्टिकोण छोड़कर दार्शनिक दृष्टिकोण के क्षेत्र में उत्तर आता है—जिसके अलग नियम हैं और मूल्यांकन के अलग स्टैंडर्ड हैं।
कबीरपंथ में कबीर के विचारों की दुर्गति के इतिहास से साबित होता है कि कोई क्रांतिकारी विचारधारा विरोधियों की आलोचनाओं से नहीं मरती, वह इतिहास-प्रक्रिया से बेख़बर अनुयायियों की अंधश्रद्धा, कट्टरवादिता और महत्त्वाकांक्षा से मरती है।
कबीर ने जीवनभर जिन धार्मिक और सामाजिक रूढ़ियों का विरोध किया, उन्हीं में कबीर को क़ैद करने की कोशिश कबीरपंथियों ने की है।
कबीर जिस लोकधर्म का विकास कर रहे थे, उसका मुख्य लक्ष्य है मानुष सत्य या मनुष्यत्व का विकास।
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तुलसीदास का कवि-स्वभाव, कबीर से एकदम भिन्न है।
कबीर यह नहीं मानते कि लोक में धर्म के नाम पर जो कुछ है, वह सब विवेक-सम्मत है।
प्रायः जिसे लोकधर्म कहा जाता है, उसमें बहुत कुछ ऐसा भी होता है जिसे कबीर लोकभ्रम मानते हैं : 'लोका जानि न भूलौ भाई।'
हिंदी-क्षेत्र का दलित आंदोलन, कबीर से प्रेरित और प्रभावित होता रहा है।
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कबीरदास अगर केवल आलोचना और प्रश्न करने तक सीमित रहते तो; वे अधिक से अधिक असहमति और विरोध के कवि होते, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं। लेकिन वे केवल असहमति और विरोध के कवि नहीं है।
चरखा कबीर के लिए जीवनयापन का साधन है और पूजा की वस्तु भी। उनकी दृष्टि में जीवन के कर्म से धर्म अलग नहीं है।
कबीर की एक बड़ी विशेषता प्रश्न करने की प्रवृत्ति है। यह प्रवृत्ति कबीर में जितनी प्रखर है, उतनी उस काल के किसी अन्य कवि में नहीं है।
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साधारण जनों के लिए कबीर का सदाचारवाद, तुलसी के संदेश से अधिक क्रांतिकारी था।
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