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सांप्रदायिकता पर उद्धरण

सांप्रदायिकता संप्रदाय

विशेष से संबद्धता का प्रबल भाव है जो हितों के संघर्ष, कट्टरता और दूसरे संप्रदाय का अहित करने के रूप में प्रकट होता है। आधुनिक भारत में इस प्रवृत्ति का उभार एक प्रमुख चुनौती और ख़तरे के रूप में हुआ है और इससे संवाद में कविताओं ने बढ़-चढ़कर भूमिका निभाई है। इस चयन में सांप्रदायिकता को विषय बनाती और उसके संकट को रेखांकित करती कविताएँ संकलित की गई हैं।

भारत को एक ऐसी ताक़त का निर्माण करना होगा, जो सांप्रदायिकता जैसे उन तमाम ‘वादों’ से छुटकारा पा चुकी हो—जो उसकी तरक़्क़ी में रुकावट पैदा करते हैं और उसे बाँटते हैं।

जवाहरलाल नेहरू

फ़िरक़ापरस्ती की किसी भी सूरत से ताल्लुक़ रखने का मतलब है, हिंदुस्तान में प्रतिक्रियावादी ताक़तों को और ब्रिटिश साम्राज्यवाद को मज़बूत बनाना।

जवाहरलाल नेहरू

कट्टरपंथियों ने अपने उद्देश्यों के अनुसार तुलसीदासजी का उपयोग किया, जिस प्रकार आज जनसंघ और हिंदू महासभा ने शिवाजी और रामदास का उपयोग किया।

गजानन माधव मुक्तिबोध

सम्प्रदायवाद सामन्तवाद का ही एक अस्त्र है और मध्यकालीन संत कवियों का सम्प्रदायवाद-विरोध, उनके व्यापक सामन्तवाद-विरोधी संघर्ष का ही एक अंग है।

नामवर सिंह

मैंने अपने समूचे साहित्य में ऐसा कोई चित्रण नहीं देखा, जहाँ किसी कट्टर सनातनी हिंदू को आदरणीय तथा आदर्श व्यक्ति समझा जा सके।

यू. आर. अनंतमूर्ति