हमारी आँखें सामने हैं, पीछे नहीं। सामने बढ़ते रहो और जिसे तुम अपना धर्म कहकर गौरव का अनुभव करते हो, उसे कार्यरूप में परिणत करो।
प्रगतिशील जीवन-मूल्य, निम्न-मध्यवर्गीय श्रेणी के भावना-चित्रों में अधिक पाए जाते हैं।
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दुनिया की समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय विश्वास, प्रेम, प्रचुरता, शिक्षा और शांति पर ध्यान व ऊर्जा लगाएँ।
हर राष्ट्र के लिए और हर व्यक्ति के लिए जिसको बढ़ना है, काम-काज और सोच-विचार के उन सँकरे घेरों को—जिनमें ज़्यादातर लोग बहुत अरसे से रहते आए हैं—छोड़ना होगा और समन्वय पर ख़ास ध्यान देना होगा।
प्रगति के समर्थक; प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से जुड़ी हर बात की आलोचना करे, उस पर अविश्वास करे और उसे चुनौती दे।
असंतोष प्रगति का लक्षण माना जाता है; किंतु वह उसका वास्तविक लक्षण तो तब सिद्ध होगा, जब प्रगति वस्तुतः हो, होकर रहे।
मेरा मूलमंत्र है—व्यक्तित्व का विकास। शिक्षा के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को उपयुक्त बनाने के सिवाए मेरी और कोई उच्चाकाँक्षा नहीं है।
परंपरा को जड़ और विकास को गतिमान मानना, हमारी विचार प्रक्रिया में रूढ़ हो गया है।
मनुष्यों के अधूरे चरित्र और यथार्थ के रूपांतरणशील चरित्र के कारण ही यह आवश्यक होता है कि शिक्षा, सतत चलती रहने वाली एक गतिविधि हो।
जो चूहे के शब्द से भी शंकित होते हैं, जो अपनी साँस से चौंक उठते हैं, उनके लिए उन्नति का कंटकित मार्ग नहीं है। महत्त्वाकांक्षा का दुर्गम स्वर्ग उनके लिए स्वप्न है।
आधुनिक भारत का विकास; घरों के ख़ाली हो जाने की, परिवार के सिकुड़कर सूख जाने की कहानी है।
व्यक्तित्व के विशेष विकास से प्राप्त जो आभ्यंतर गुण हैं और गुण-धर्म हैं, वही प्रतिभा है।
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सत्तातंत्र द्वारा तथाकथित ‘सांस्कृतिक विकास’ के नाम पर संस्कृति को संरक्षण दिए जाने के ख़तरे स्पष्ट हैं।
भारत में आधुनिक सभ्यता की जो प्रगति हुई है, उसमें अच्छी और बुरी दोनों बातें शामिल हैं। बीते वक़्त में हमने जो कुछ खोया है, उसमें से एक है गीत-संगीत को अपनी ज़िंदगी में शामिल करने का जज़्बा, और हमारी उत्सवधर्मिता की क्षमता।
प्रगतिशीलता से मेरा तात्पर्य परिवेश के प्रति उस सचेतनता से है कि जो सचेतनता उसे वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध ले जाती है।
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भारत को एक ऐसी ताक़त का निर्माण करना होगा, जो सांप्रदायिकता जैसे उन तमाम ‘वादों’ से छुटकारा पा चुकी हो—जो उसकी तरक़्क़ी में रुकावट पैदा करते हैं और उसे बाँटते हैं।
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जीवन चाहे वह किसी व्यक्ति का हो, समूह का हो या फिर किसी राष्ट्र या समाज का हो—उसे आवश्यक रूप से गतिशील, परिवर्तनीय और सतत बढ़ते रहने वाले होना चाहिए।
कार्य की सफलता का मूल कारण है उत्तम उद्योग। उद्योग के बिना कोई भी सिद्धि नहीं होती है। उद्योग से ही सब समृद्धियों का उदय होता है और जहाँ उद्योग नहीं है, वहाँ पाप ही पाप है।
आदमी बराबर एक साहसपूर्ण यात्रा में लगा हुआ है, उसके लिए न कहीं दम लेना है और न उसकी यात्रा का अंत है।
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यदि हम परंपरा का नकारात्मक मूल्यांकन भी करते हैं, तो भी यह स्वीकार करना कठिन है कि दृष्टिकोणों और मूल्यों को बदलने और संरचनात्मक बाधाओं को हटाने से, अपने आप ही पर्याप्त उन्नति तथा वृद्धि हो जाएगी।
मनुष्य के बौद्धिक उपादान क्रमशः विकसित होते हैं, बदलते हैं किंतु के यथार्थ की गति के साथ ही बदलते रहेंगे, विकासमान होंगे—यह आवश्यक नहीं होता। यथार्थ बहुत आगे बढ़ जाता है विकास-क्रम में, बौद्धिक उपादान पीछे छूट जाते हैं—कभी-कभी।
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अगर आप लेखक या कलाकार हैं तो मुझे लगता है, आप प्रगति की अवधारणा पर गहरा संदेह करेंगे। आज प्रगति की अवधारणा एक ऐसी पवित्र अवधारणा हो गई है कि अगर आप किसी की प्रशंसा भी करना चाहते हैं तो आप कहेंगे कि वह बहुत प्रगतिशील व्यक्ति है।
वे कलाकृतियाँ जिनमें कलात्मक प्रतिभा का अभाव होता है, शक्तिहीन होती हैं, चाहे वे राजनीतिक दृष्टि से कितनी ही प्रगतिशील क्यों न हों।
वाल्मीकि की समाजदृष्टि के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे सार्थक तथा रचनात्मक परिवर्तन के पक्षधर हैं, पर प्रचलित व्यवस्था के विध्वंस के नहीं।
उन्नति का मूल आत्मसमर्पण है, उन्नति का अर्थ है आत्मज्ञान।
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परंपरा बहुत बड़ा भंडार है। इसका प्रयोग परिवर्तन और विकास की विचारधारा के समर्थन में किया जा सकता है, साथ ही उसका प्रयोग परिवर्तन और विकास विरोधी विचारधारा के लिए भी हो सकता है।
भारत का इतिहास, क्रमिक अनुकूलन का सबसे अच्छा नमूना है। कछुए या शतुरमुर्ग़ की तरह हमने ऐसे अवयव विकसित किए कि विपरीत से विपरीत आँधी भी हमारे ऊपर से गुज़र गई।
परस्पर विरोधिनी लक्ष्मी और सरस्वती का, एक ही स्थान पर कठिनता से पाया जाने वाला मेल सत्पुरुषों की उन्नति करने वाला हो।
विकास की प्रक्रिया का सूत्रपात मनुष्य के मस्तिष्क में होता है।
किसी राष्ट्र में स्त्रियों की स्थिति ही उसकी प्रगति का वास्तविक मापदंड है।
चलता हुआ मनुष्य सुरक्षित होता है; उसे देखकर समाज के सुरक्षा-कवच में झाँकना संभव है।
किसी देश की समृद्धि इस पर निर्भर करती है कि वह धन-संपदा का तर्कसंगत वितरण करने में किस हद तक कामयाब है।
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तरक़्क़ी मिलने की शुरुआत आराम त्यागने के साथ ही होती है।
अगर संस्कृति में कोई मूल्य है, तो निश्चित तौर पर इसमें गहराई भी होनी चाहिए। इसमें निश्चित तौर पर एक गतिशील कारक भी होना चाहिए।
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विकास के कार्यक्रम भी एक तरह से संस्कृति के क्षेत्र में हस्तक्षेप होते हैं।
प्राविधिक विकास की विभिन्न स्थितियों में क्रमशः संचार-क्षेत्र का विस्तार होता रहा।
परंपरा के संबंध में सबसे बड़ी भ्रांति उसे जड़ और अपरिवर्तनशील मानना है।
काव्य का उन्नयन और विकास—निःसंदेह एक जटिल प्रक्रिया है।
सामाजिक और राजनैतिक उन्नति प्रेम और लगन से पैदा होती है, न कि उपदेशों और लेक्चरबाजी से।
विरासत में मिले बहुत-से रीति-रिवाजों को हमें तोड़ देना है, जो हमें ज़ंजीरों की तरह बाँध देते और नीचे ढकेलते हैं।
इतिहास सिखाता है कि पके हुए बालों की जटा को जब सनातन समझकर उसकी पूजा की जाती है, तो वही जटा फाँस बनकर गला घोटती है।
मैं धीरे चलता हूँ, लेकिन कभी पीछे नहीं लौटता।
यह निश्चित है कि प्रत्येक जाति की उन्नति और अवनति उसके महापुरुषों पर अवलंबित है।
विकास-संबंधी अधिकांश निर्णय राजनीतिक होते हैं।
विकास के प्रश्नों और समस्याओं पर ध्यान देना आरंभ अवश्य किया गया, पर इस दिशा में साहसिक और कल्पनाशील प्रयोगों का अभाव बना रहा।
आज के संवाद में 'परंपरा' और 'विकास' प्रायः विपर्यायवाची शब्द बन गए हैं, उनका उपयोग दो विपरीत ध्रुवीय संप्रत्ययों के रूप में किया जाने लगा है।
नदी के दीपों में होती है गति। नदी के दीप घर के दीपों से कह सकते हैं कि देखो, मैं कितना गतिशील हूँ, प्रगतिशील हूँ। तुम तो एक ही जगह बँधकर रह गए हैं। तनिक भी आगे नहीं बढ़ रहे। तुम यथास्थितिवादी हो, बुर्जुआ हो।
हम विकास के नमूने नहीं, प्रमाण थे।
तुम इंद्रधनुष कभी नहीं देख सकोगे, यदि नीचे देखते रहे तो।
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