असंतोष प्रगति का लक्षण माना जाता है; किंतु वह उसका वास्तविक लक्षण तो तब सिद्ध होगा, जब प्रगति वस्तुतः हो, होकर रहे।
जब तक आदमी अपनी चालू हालत में ख़ुश रहता है, तब तक उसमें से निकलने के लिए उसे समझाना मुश्किल है। इसलिए हर एक सुधार के पहले असंतोष होना ही चाहिए।
हिंदी के वर्तमान काव्य-साहित्य के प्रति कुछ लोगों में जो असंतोष है, उसे देखकर यह कहना पड़ता है कि यह असंतोष इसलिए है कि काव्य में जो कुछ वे कहना या देखना चाहते हैं—वह प्रकट नहीं होता या नहीं हो पाता।
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अशांति असल में असंतोष है।
मैं कई ऐसे करोड़पतियों को जानता हूँ, जो ख़ुद को दिवालिया महसूस करते हैं, जिन्हें लगता है कि उनके पास कुछ भी नहीं है। इसका कारण यह है कि वे लगातार अपनी तुलना किसी और से करते रहते हैं, किसी ऐसे व्यक्ति से जिसके पास उनसे अधिक पैसा है।
अपर्याप्ति की छटपटाहट का एहसास होते ही कुछ गहराई में जाना अनिवार्य हो जाता है और वहीं से ख़तरे की शुरुआत होती हैं।
एक नकारात्मक गुण का उदाहरण है आत्मसंतोष।