हिंदी पर उद्धरण
एक भाषा और मातृभाषा
के रूप में हिंदी इसका प्रयोग करने वाले करोड़ों लोगों की आशाओं-आकांक्षाओं का भार वहन करती है। एक भाषाई संस्कृति के रूप में उसकी जय-पराजय चिंतन-मनन का विषय रही है। वह अस्मिता और परिचय भी है। प्रस्तुत चयन में हिंदी, हिंदीवालों और हिंदी संस्कृति को विषय बनाती कविताओं को शामिल किया गया है।
हमारे अधिकांश उपन्यास अति सामान्य प्रश्नों (ट्रीविएलिटीज) से जूझते रहते हैं और उनसे हमारा अनुभूति-संसार किसी भी तरह समृद्ध नहीं होता।
सबको हिंदी और उर्दू, दोनों लिपियों में लिखना सीखना चाहिए।
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हमें अंग्रेज़ी की आवश्यकता है, किंतु अपनी भाषा का नाश करने के लिए नहीं।
हमारी राष्ट्र-भाषा वही हो सकती है, जो देवनागरी और उर्दू—दोनों लिपियों में लिखी जाती है।
आध्यात्मिक भोजन के लिए भी भारत के लोग जिस दिन अंग्रेज़ी का मुँह देखेंगे, उस दिन उनके डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी काफ़ी होगा। अंग्रेज़ी सीखिए-सिखाइए लेकिन उसे विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम क्यों बनाते हैं?
हिंदी ही नहीं, कोई भी भाषा जब दफ़्तरों में घुसती है तो उसका एक बँधा-बँधाया शब्द-जाल विकसित होता है—वह टकलाली स्वरूप ग्रहण कर लेती है।
हिंदी अगर एक छोटी-सी भाषा होती, लोग उसे प्रेम और मनुष्यता के साथ बरतते तो उसका लेखक इतना अकेला नहीं होता।
क्या कोई व्यक्ति स्वप्न में भी यह सोच सकता है कि अँग्रेज़ी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है? फिर राष्ट्र के पाँवों में यह बेड़ी किसलिए?
बहुत कम बच्चे इतनी हिंदी सीख पाएँगे कि वे निराला को पढ़कर ‘जागो फिर एक बार’ को अर्थ दे सकें।
भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं का रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होने वाली युक्ति ही अलंकार है।
अगर यहाँ हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी और सिख—सबको रहना है तो हिंदी और उर्दू के संगम से जो भाषा बनी है—उसी को राष्ट्र भाषा के रूप में अपनाना होगा।
आधुनिक हिंदी उपन्यास का प्रसंग उठने पर जो सबसे पहली बात ध्यान में आती है वह यह है कि हिंदी उपन्यास के साथ ‘आधुनिक’ का विशेषण अनावश्यक है।
द्राविड़स्तान की मातृभाषा तामिल या तेलगू बनी रहनी चाहिए, मगर वहाँ के लोगों का धर्म या फ़र्ज़ यह हो जाता हैं कि वे जितनी जल्दी से हिंदुस्तानी सीख सकें, सीख लें।
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अँग्रेज़ी शब्द-समूह का हूबहू हिंदी अनुवाद निरर्थक ही नहीं—विपरीत अर्थ सृजित करनेवाला भी हो सकता है। वास्तव में भाषा का विकास ऐसे कृतिम उपायों से नहीं, संस्कृति और चिंतन के विकास के अनुरूप ही होता है।
उर्दू में जो संस्कृत शब्दों से परहेज है, उसे कम होना है भारत की भाषाओं के लिए अरबी फ़ारसी का वही महत्त्व नहीं है जो संस्कृत का है। व्याकरण और मूल शब्द भंडार की दृष्टि से उर्दू संस्कृत परिवार की भाषा है, न कि अरबी परिवार की। इसलिए अरबी से पारिभाषिक शब्द लेने की नीति ग़लत है; केवल अरबी से शब्द लेने और संस्कृत शब्दों को मतरूक समझने की नीति और भी ग़लत है। भारत की सभी भाषाएँ प्रायः संस्कृत के आधार पर पारिभाषिक शब्दावली बनाती है। उर्दू इन सब भाषाओं से न्यारी रहकर अपनी उन्नति नहीं कर सकती
यह कितने दुःख की बात है कि हम स्वराज्य की बात भी पराई भाषा में करते हैं?
राजभाषा बनते ही हिंदी की हैसियत राजकवि, राजवैद्य या राजपुरोहित की-सी हो गई है, जिसका पूजा से कोई संबंध रखना ज़रुरी नहीं है।
अँग्रेज़ी-परस्त हिंदी का यह नकचढ़ा (हाई-ब्राऊ) रवैया उन लेखकों को बहिष्कृत करता जा रहा है, जिनसे सहज गद्य की सहज आशा की जा सकती थी।
हिंदी एक भाषा के अलावा एक चेतना का भी नाम थी जिसका रिश्ता राष्ट्रवाद की उठान से बैठ गया था। कालांतर में रिश्ता एक फंदा बन गया।
भारत की सारी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ हैं। हिंदी ही सिर्फ़ राष्ट्रभाषा है, यह मानना भी एक खंडित सत्य होगा।
हिंदी की सेवा करते-करते उसके सेवकों ने उसको असाध्य रूप में रोगी बना दिया।
आज हिन्दी में धड़ल्ले के साथ नए-नए बढ़िया प्रकाशन और नए-नए विषय अपना रूप-रंग लेकर हज़ारों की तादाद में दिखलाई पड़ते हैं—वह इसलिए नहीं कि प्रकाशक उदार हो गया है; या उसकी रुचि परिष्कृत हो गई है, यह सब केवल इसलिये कि साहित्य का बाजार इन सबकी माँग करता है।
हिंदी के बड़े अख़बार उसकी आत्मा को बेचने में जुटे हैं।
हिंदुस्तानी का मतलब यही है कि आसान बोली बोली जाए और वही लिखी-पढ़ी जाए।
केवल हिंदी जाननेवाला लेखक अपने ही साहित्य-क्षेत्र में बेगाना हो गया है।
हिंदी में तो जैसे अब जो कुछ है, स्मार्ट फ़ोन पर है। अख़बारों में शायद ही कभी कोई क़ायदे की विवेचना छपती हो।
भारतवासियों के अनुभवों को लिखने वाली, बताने वाली भाषा के रूप में हिंदी का विकास होना चाहिए।
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यह शर्त, कि हिंदी-गद्य समझने के लिए अँग्रेज़ी की जानकारी हो—हमारे गद्य की सबसे बड़ी कमज़ोरी बनती जा रही है।
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अँग्रेज़ी का वाक्य-विन्यास, उसके शब्द और मुहावरे, उसके विशिष्ट अभिव्यक्ति-प्रयोग सभी हिंदी गद्य में उतरने लगे हैं जो हिंदी-पाठक को आतंकित करते हैं। और केवल हिंदी जाननेवाले लेखक को निरुत्साह बनाकर छोड़ देते हैं।
हिंदी का रचनाकार इतने-इतने बंधनों में जकड़ा हुआ है कि हम निर्बंध रचना की उम्मीद कर भी नहीं सकते।
यह कड़वी हक़ीक़त कि हम हिंदी के लेखक एक-दूसरे को शौक़, प्यार और उदारता से नहीं पढ़ते। अक्सर तो पढ़ते ही नहीं। पढ़ भी लें तो बता नहीं देते कि पढ़ लिया है।
पूरे भारत की संवेदना को अभिव्यक्त करने की क्षमता हिंदी में आनी चाहिए।
बड़ा भारी काम भारतेंदु ने यह किया कि स्वदेशाभिमान, स्वजाति प्रेम, समाज-सुधार आदि की आधुनिक भावनाओं के प्रवाह के लिए हिंदी को चुना तथा इतिहास-भाव विज्ञान, नाटक, उपन्यास, पुरावृत्त इत्यादि अनेक समयानुकुल विषयों की ओर हिंदी को दौड़ा दिया।
एक हिंदुस्तानी के नाते जब कोई मेरे बारे में यह सोचता है कि मैं ज़बान से अँग्रेज़ी ज़्यादा जानता हूँ, तो मुझे शर्म मालूम होती है।
हिंदी को सबके स्वीकार की भाषा होना था।
हिन्दी के कवियों में यदि कहीं रमणीय और सुंदर अद्वैती रहस्यवाद है तो जायसी में, जिनकी भावुकता बहुत ही ऊँची कोटि की है।
हिंदी प्रकाशन उद्योग बच्चन का कहा मानता है—‘जो बीत गई सो बात गई।’
हिंदी के लोग भारत की अन्य प्रांतीय भाषाएँ सीखते नहीं, इसलिए हिंदी का विकास नहीं हुआ है।
हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीवी है—बहुत बोलने वाली बहुत खाने वाली बहुत सोने वाली।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने समझाया कि असली साधक वही है जो वरदान की माँग को टालता जाए।
अक्सर हिंदी का ईमानदार लेखक भ्रम और उत्तेजना के बीच की ज़िंदगी जीता है।
यहाँ (हिंदी में) केवल आरोप लगते हैं और निर्णय दिए जाते हैं। बल्कि आरोप ही अंतिम निर्णय होते हैं।
हिंदी की समकालीन समीक्षा में बार-बार जो नवलेखन से अनास्था की शिकायत की जाती है, दुर्भाग्य से उसकी प्रकृति बहुत कुछ बहेलिया-विप्र के शाप जैसी है।
हिंदी के हैड हमेशा कवि-आलोचक होते हैं।