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अर्थ पर उद्धरण

‘यह सुरक्षित कुसुम ग्रहण करने योग्य है; यह ग्राम्य है, फलतः त्याज्य है; यह गूँथने पर सुंदर लगेगा; इसका यह उपयुक्त स्थान है और इसका यह’—इस प्रकार जैसे पुष्पों को भली-भाँति पहचानकर माली माला का निर्माण करता है, उसी प्रकार सजग बुद्धि से काव्यों में शब्दों का विन्यास करना चाहिए।

भामह

व्याकरण रूपी सागर के सूत्र जल हैं, वार्तिक आवर्त्त (भँवर) हैं, पारायण (भाष्य, कौमुदी आदि) रसातल हैं, धातुपाठ, उणादि, गणपाठ आदि ग्राह हैं। (उस व्याकरण रूपी सागर) को पार करने के लिए चिंतन-मनन विशाल नाव है। धीर व्यक्ति उसके तट को लक्ष्य बनाते हैं और बुद्धिहीन व्यक्ति उसकी निंदा करते हैं। समस्त अन्य विद्या रूपी हथिनियाँ उसका निरंतर उपभोग करती हैं। इस दुरवगाह्य व्याकरण रूपी सागर को बिना पार किए कोई व्यक्ति शब्द रूपी रत्न तक पहुँचने में समर्थ नहीं हो पाता।

भामह

हमारी यथार्थ अर्थवत्ता हमारे अपने बीच में नहीं है, वह समस्त जगत के मध्य फैली हुई है।

रवींद्रनाथ टैगोर

सत्यकाव्य का प्रणयन पुरुषार्थचतुष्टय एवं कलाओं में निपुणता, आनंद और कीर्ति प्रदान करता है।

भामह

मौसम मेरे चारों ओर है ज़रूर, पर अपना अर्थ खो चुका है।

श्रीलाल शुक्ल

काव्य में, कवि-परंपरा द्वारा प्रयुक्त्त, श्रुतिपेशल और सार्थक शब्द ही प्रयोग करना चाहिए। पदविन्यास की चारुता अन्य सभी अलंकारों से बढ़कर है।

भामह

शब्द और अर्थ दोनों मिलकर ही काव्य कहलाते हैं। यह काव्य दो प्रकार का होता है : गद्य और पद्य। संस्कृत, प्राकृत और इनसे भिन्न अपभ्रंश—भाषा के आधार पर यह तीन प्रकार का होता है।

भामह

अर्थ की प्रतीति के लिए कथित अकारादि वर्णों का सार्थक समुदाय ही शब्द कहा जाता है।

भामह

अँग्रेज़ी शब्द-समूह का हूबहू हिंदी अनुवाद निरर्थक ही नहीं—विपरीत अर्थ सृजित करनेवाला भी हो सकता है। वास्तव में भाषा का विकास ऐसे कृतिम उपायों से नहीं, संस्कृति और चिंतन के विकास के अनुरूप ही होता है।

श्रीलाल शुक्ल

वह शब्द है, अर्थ, न्याय और कला ही, जो काव्य का अंग बन सके, अर्थात् काव्य में सभी शब्दों, अर्थों, दर्शनों, कलाओं आदि का प्रयोग हो सकता है। अहो! कवि का दायित्व कितना बड़ा है।

भामह

शब्द का फल है अर्थज्ञान और एक शब्द के दो फल नहीं हो सकते। आपके चिंतन में एक ही शब्द से दो फल—तद्भिन्न की निवृत्ति और तत्पदार्थ का ज्ञान—कैसे प्राप्त होते हैं?

भामह

जिसका अर्थ विद्वानों से लेकर स्त्रियों और बच्चों (जनसाधारण) तक, सभी को प्रतीत हो जाए, वह प्रसाद गुण कहलाता है।

भामह

शब्द अपरिवर्तनीय (नित्य) और अनश्वर है और नाद से भिन्न है। अबोध व्यक्ति सांकेतिक अर्थों को पारमार्थिक मानते हैं।

भामह

आँख से देखा रूप, कान से सुना रूप, मन से सोचा रूप— ये सब रूप इसके लिए अर्थहीन हैं, जिसके पास रूपांकन विद्या नहीं है।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

एक भी दोषपूर्ण शब्द का प्रयोग होने पाए—इसका सदैव ध्यान रखना चाहिए।

भामह

आत्मा का सारा सार-तत्त्व, प्राकृत्त रूप से सामाजिक है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

शब्द अर्थ के द्वारा चारों ओर से बँधा रहता है, कवि जब उसे मुक्ति देता है तब वह भ्रमर की तरह गुंजन करता हुआ हृदयपद्म की पंखुड़ियाँ खोलने के लिए अपनी वेदना का ज्ञान कराता है, तब वह सिर्फ़ शब्द नहीं रह जाता है और उसका अभिधान द्वारा पुष्ट वह अर्थ ही रहता है।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

जिससे अर्थ की प्रतीति हो, वह शब्द है— ऐसा कुछ विद्वान मानते हैं। ऐसी स्थिति में तो अग्नि की प्रतीति कराने के कारण धूम्र और प्रकाश को भी शब्द मानना पड़ेगा।

भामह

जिस रूप में मनुष्य अपने सारे कष्टों भाग्य को स्वीकार करता है, जिस तरह वह अपनी सलीब ढोता है—वे उसे भरपूर अवसर देते हैं कि वह मुश्किल से मुश्किल हालातों के बीच भी—अपने जीवन को एक गहरा अर्थ दे सके।

विक्टर ई. फ्रैंकल

रस के आविर्भाव से मनुष्य की जड़ता समाप्त हो जाती है।

रवींद्रनाथ टैगोर

केवल एक-एक शब्द को; एक-एक वाक्य का अर्थ देकर संक्षेपीकरण करते रहने से, बहुत बार बात नहीं बन पाती।

गजानन माधव मुक्तिबोध

जब किसी काव्यार्थ की उपलब्धि हमारे लिए गहरी और उज्ज्वल होती है; तब उसके हर शब्द की सार्थकता, उस समय भाव के माधुर्य के कारण हमारे लिए विशेष सुंदर हो उठती है।

रवींद्रनाथ टैगोर

शब्दालंकार शब्द के शोभाधायक होते हैं और अर्थालंकार अर्थ के। चूँकि शब्द और अर्थ दोनों मिलकर ही काव्य होते हैं, इसलिए हमें तो शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों ही इष्ट हैं।

भामह

लोकतंत्र का अर्थ अब एकछत्र सत्ता हो गया है, अभिव्यक्ति के मायने हैं प्रतिध्वनि, और अधिकार का नया समकालीन अर्थ है संकोच।

कृष्ण कुमार

साहित्य का सहज अर्थ जो समझता हूँ, वह है नैकट्य अर्थात् सम्मिलन।

रवींद्रनाथ टैगोर

नूपुर पदचाप के छंद से मधुर बजता है, पालतू कुत्ता जब उसे लेकर खींच-तान करता है, तब वह विरक्ति उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करता।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

रूप और रंग, वाणी और अर्थ की तरह एक-दूसरे से संयुक्त हैं––यह तो पुरानी बात है, किंतु नए युग में भी कलाकार अगर इस बात को समझते हुए नहीं चलेंगे तब तो भारी विपत्ति होगी––यह कहने में कोई हर्ज नहीं है।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

जीवन का अर्थ अज्ञात संदिग्ध नहीं हो सकता। इसे बहुत ही वास्तविक ठोस होना चाहिए, वैसे ही, जैसे जीवन के सभी कार्य वास्तविक ठोस हैं।

विक्टर ई. फ्रैंकल

जिसका अर्थ ओझल हो गया हो, उसे अपार्थ दोष कहते हैं। वह अर्थ पद और वाक्य दोनों में रहता है।

भामह

मनुष्य की प्रधान चिंता यह नहीं कि वह सुख प्राप्त करे या स्वयं को पीड़ा से दूर रखे, वह तो दरअसल अपने जीवन के लिए एक अर्थ पाना चाहता है।

विक्टर ई. फ्रैंकल

एक बार जब मनुष्य की; अर्थ की तलाश पूरी हो जाती है तो यह केवल उसे ख़ुशी देती है, बल्कि उसे अपनी पीड़ा से पार पाने की क्षमता भी प्रदान करती है।

विक्टर ई. फ्रैंकल

अर्थ की तलाश क्यों? जीवन आकांक्षा है—अर्थ नहीं।

चार्ली चैप्लिन

अर्थ की तलाश करते हुए, इंसान के भीतर आंतरिक तालमेल के बजाए आंतरिक तनाव भी उभर सकता है।

विक्टर ई. फ्रैंकल

पीड़ा के बीच जीवन का अर्थ पाने के नज़रिए को देखा जाए तो यह बेशर्त है।

विक्टर ई. फ्रैंकल

समर्थ कवि शब्दों में छिपी ध्वनि कों व्यंजना में बदल देते हैं।

कृष्ण कुमार

किसी भी कलाकृति के भीतर जो गतिमान तत्त्व होते हैं, उनके अर्थ व्यापक होते हैं।

गजानन माधव मुक्तिबोध

हर मनुष्य के लिए उसके जीवन का अर्थ अलग-अलग होता है, जो हर दिन या घंटे के हिसाब से भी अलग-अलग हो सकता है।

विक्टर ई. फ्रैंकल

जीवन का अर्थ जानने का मतलब है कि आप इस बार में जानें कि किसी भी हालात में आपको क्या करना चाहिए। एक बार यह जान लेने के बाद आपके सामने एक अर्थ और एक उद्देश्य जाता है।

विक्टर ई. फ्रैंकल

शब्दों में अपने अर्थ से अधिक अर्थ कहने की जो शक्ति जाती है, उसका नाम वृत्ति है। उस शक्ति को प्रकट करने के लिए प्रत्यय का सहारा लेते हैं।

वासुदेवशरण अग्रवाल

शब्दों द्वारा यदि हम अधिक अर्थ कहना चाहते हैं, तो उस शब्द में प्रत्यय लगाकर शब्द की शक्ति को बढ़ा देते हैं।

वासुदेवशरण अग्रवाल

एक प्रतीक के भीतर एक निश्चित अर्थ और बौद्धिक सूत्र होता है, जबकि रूपक एक छवि है। वह छवि उसी विशेषता की होती है; जो उस दुनिया में है, जिसे वह दर्शाता है।

आन्द्रेई तारकोवस्की

परस्पर साकांक्ष पदों का समूह ही वाक्य कहलाता है जो स्वयं निराकांक्ष तथा एक अर्थ का बोधक होता है।

भामह

भाषाएँ अपनी प्रवृत्ति के अनुसार शब्दों को विशेष अर्थ देती हैं।

श्यामाचरण दुबे

अर्थवान् वर्णसमूह ही पद कहा जाता है। व्याकरण में सुबंत और तिङन्त को पद कहा जाता है।

भामह

काव्य में जब केवल अर्थ की रमणीयता रहती है, तब तो मूर्त आधार का अस्तित्व नहीं रहता।

श्यामसुंदर दास

शब्द में आकर्षण का हेतु अर्थ है।

वासुदेवशरण अग्रवाल

प्रतीक के विपरीत, रूपक का अर्थ अनिश्चित होता है।

आन्द्रेई तारकोवस्की