
लेखक का कर्तव्य है पाठक को अपनी भाषिक संस्कृति से जोड़ना।

आज हिन्दी में धड़ल्ले के साथ नए-नए बढ़िया प्रकाशन और नए-नए विषय अपना रूप-रंग लेकर हज़ारों की तादाद में दिखलाई पड़ते हैं—वह इसलिए नहीं कि प्रकाशक उदार हो गया है; या उसकी रुचि परिष्कृत हो गई है, यह सब केवल इसलिये कि साहित्य का बाजार इन सबकी माँग करता है।

निबंधकार का एक मुख्य कर्तव्य होता है पाठक की मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करना।

इस देश की काव्य रसिक जनता यह नहीं चाहती कि जो काम प्रबन्ध-काव्य के रचयिता करते है, वह काम उपन्यास-लेखकों के हवाले किया जाए और कविगण केवल मुक्तक लिखा करें।

एक उपन्यासकार की आदर्श पाठक की तलाश—वह चाहे राष्ट्रीय हो या अंतर्राष्ट्रीय—उपन्यासकार के अपने को उसके रूप में कल्पना करने और फिर उसे दिमाग़ में रखकर किताबें लिखने से शुरू होती है।