
बच्चा एक अनकही कहानी होता है, उसकी कहानी हमारे दिए शब्दों में नहीं कही जा सकती। उसे अपने शब्द ढूँढ़ने का समय और स्थान चाहिए, ढूँढ़ने के लिए ज़रूरी आज़ादी और फ़ुर्सत चाहिए। हम इनमें से कोई शर्त पूरी नहीं करते। हम उन्हें अपने उपदेश सुनने से फ़ुर्सत नहीं देते, उन्हें सुनने की फ़ुर्सत हमें हो–यह संभव ही नहीं।

बच्चों को भाषा पढ़ाने का भला क्या मतलब हो सकता है, सिवाय इस दृष्टि-विस्तार के, क्योंकि भाषा तो वे पहले से जानते हैं। हमें पढ़ना-लिखना सिखाने के आग्रह को भाषा सिखाने का मुख्य उद्देश्य यही समझना चाहिए।

संविधान सुधार दिया गया, उच्चतम न्यायालय कह चुका, पर हमें बच्चों की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही। वे हमारे बीच रहते हैं; हमारी परछाइयों के घेरे में क़ैद। परछाई से बाहर तभी जाने दिए जाते हैं जब परछाई उन पर पड़ चुकी होती है और उनकी आवाज़ पूरी तरह एक स्वीकृत ज़बान में गढ़ी जा चुकती है। क्या आश्चर्य कि ऐसे समाज में बाल साहित्य न्यून मात्रा में है।

स्त्रियों को बचपन से ही सिखाया जाता है कि सुंदरता उनका छत्र है, इसलिए मन शरीर को आकार देता है और अपने चमकदार पिंजरे में घूमते हुए केवल अपनी जेल को सजाना चाहता है।

स्नेह से उत्पन्न दया नामक शिशु, धन नामक धाय से पोषित होता है।

बचपन में हमेशा एक पल होता है, जब दरवाज़ा खुलता है और भविष्य को प्रवेश करने देता है।

अभावग्रस्त बचपन, मेहनत और चिंताओं से भरा विद्यार्थी-जीवन, बाद में मँझोली हैसियत की एक सरकारी नौकरी—अपने इन अनुभवों की कहानी सुनाना बेकार है क्योंकि इस तरह की कहानियाँ बहुत बासी हैं और बहुत दोहराई जा चुकी हैं।

बंधुओं तथा मित्रों पर नहीं, शिष्य का दोष केवल उसके गुरु पर आ पड़ता है। माता-पिता का अपराध भी नहीं माना जाता क्योंकि वे तो बाल्यावस्था में ही अपने बच्चों को गुरु के हाथों में समर्पित कर देते हैं।

बहुत कम बच्चे इतनी हिंदी सीख पाएँगे कि वे निराला को पढ़कर ‘जागो फिर एक बार’ को अर्थ दे सकें।

शिशु के जीवन में अनेक पथ अज्ञात रहते हैं, वहाँ पर कल्पना की अबाध गति देखने को मिलती है और प्रत्येक शिशु इसी अज्ञात को अपने-अपने चरित्र और क्षमता के अनुसार, अनेक और विभिन्न मूर्तियों के माध्यम से पहचानता हुआ चलता है।

जिस समाज में, बच्चे को यह बताने के लिए मज़बूर किया जाए कि वह कहानी सुनकर या पढ़कर बताएँ कि उसने क्या सीखा—बच्चे की आवाज़ नहीं सुनी जा सकती।

आतंक के आलावा सामूहिक निर्णय का बल और उसके आगे झुकने की विवशता भी बच्चों के समझ के बाहर की चीज़ है।

कहानी का आकर्षण बुनियादी स्वभाव का अंग है और इस अंग का विकास बचपन में अपने आप शुरू हो जाता है।

पाँच-सात वर्ष तक की आयु के बच्चे की दृष्टि संज्ञा की ग़ुलाम नहीं होती। वे चींज़ों को देखते हैं, उनकी संज्ञान नहीं करते। संज्ञान करना यानी संसार का वर्गीकरण और नामांकन करना।

संज्ञानमुक्त दृष्टि का धनी होने के कारण ही बच्चा कल्पना की सहज सामर्थ्य रखता है। वह चाँद देखता है तो चाँद बन जाता है।

बाल-साहित्य बचपन का साहित्य होता है, उसके लिए साहित्य की स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं–बच्चे की स्वतंत्रता भी चाहिए।
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बाल साहित्य बच्चों के जीवन में पढ़ाई के वर्चस्व को चुनौती दे सकता है। वह पढ़ाई की जगह पढ़ने के माहौल की माँग करता है।

बच्चों को चुपचाप पढ़ने देना और कोई आलेख या पुस्तक पढ़ लेने के बाद उस पर प्रश्न पूछना या यूँ ही कुछ चर्चा करने के प्रलोभन से बाज़ आना—एक रोचक नवाचार हो सकता है।

छोटेपन में अहंकार का दर्प इतना प्रचंड होता है कि वह अपने को ही खंडित करता रहता है।

आन्द्रे फावात एक ऐसे निराले विद्वान थे जिन्होंने पारंपरिक कहानियों की मदद से बच्चों का मनोविज्ञान समझने की कोशिश की।

बचपन में कई चीज़ें, भाव और अनुभव अनाम रहते हैं, इसीलिए इतने तीव्र होते हैं कि हम उन्हें जीवन भर उनकी मौलिक ऐन्द्रिकता में याद रख पाते हैं।


बचपन मनुष्य पर कभी-कभी दुबारा भी आता है परंतु यौवन कभी नहीं।

हम खेलना बंद नहीं करते क्योंकि हम बूढ़े हो जाते हैं; हम बूढ़े हो जाते हैं क्योंकि हम खेलना बंद कर देते हैं।
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बचपन के जंगली बाग़ीचे में सब कुछ एक अनुष्ठान है।

मेरे पास वह सब है जिसे मैंने खो दिया। मैं अपना बचपन ऐसे लेकर चलती हूँ जैसे कोई पसंदीदा फूल हाथों को ख़ुशबुओं से भर देता है।

मैं एक प्यारा बच्चा था।