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राजनीति पर उद्धरण

राजनीति मानवीय अंतर्क्रिया

में निहित संघर्षों और सहयोगों का मिश्रण है। लेनिन ने इसे अर्थशास्त्र की सघनतम अभिव्यक्ति के रूप में देखा था और कई अन्य विद्वानों और विचारकों ने इसे अलग-अलग अवधारणात्मक आधार प्रदान किया है। राजनीति मानव-जीवन से इसके अभिन्न संबंध और महत्त्वपूर्ण प्रभाव के कारण विचार और चिंतन का प्रमुख तत्त्व रही है। इस रूप में कविताओं ने भी इस पर पर्याप्त बात की है। प्रस्तुत चयन में राजनीति विषयक कविताओं का एक अनूठा संकलन किया गया है।

कविता को राजनीति में नहीं घुसना चाहिए। क्योंकि इससे कविता का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, राजनीति के अनिष्ट की संभावना है।

विजय देव नारायण साही

राजनीति जितनी ‘ठोस’ ऊपर से दिखाई देती है, अंदर से उतनी ही क्षतिग्रस्त और जर्जर हो सकती है।

कुँवर नारायण

कविता के क्षेत्र में केवल एक आर्य-सत्य है : दुःख है। शेष तीन राजनीति के भीतर आते हैं।

विजय देव नारायण साही

अगर राजनीति के बाहर भी स्वतंत्रता के कोई मतलब हैं तो हमें उसको एक ऐसी भाषा में भी खोजना, और दृढ़ करना होगा जो राजनीति की भाषा नहीं है।

कुँवर नारायण

मनुष्य मात्र को इतिहास और राजनीति नहीं एक कविता चाहिए।

श्री नरेश मेहता

संगठित राजनीति और रचना में तनाव का रिश्ता होना चाहिए और सत्ता और रचना में भी तनाव का रिश्ता होना चाहिए।

रघुवीर सहाय

यह रोज़ का क़िस्सा है। मंत्री महोदय अपनी गणना में यह भूल गए हैं कि उनकी अपनी मीयाद बँधी है।

अज्ञेय

देश-कालातीत इच्छाओं के वृत्तों की टकराहट ही है जो वस्तुतः पुरुषार्थों की स्फीति है।

श्री नरेश मेहता

नया तरीक़ा यह है कि राजनीति विकल्प नहीं खोजती है, बदल खोजती है।

रघुवीर सहाय

साहित्य में कोई पक्ष-विपक्ष नहीं होता। पक्षधरता राजनीति का स्वभाव है।

श्रीकांत वर्मा

राजा अपने राज्य की रक्षा करने में असमर्थ है, तब भी उस राज्य की रक्षा होनी ही चाहिए।

जयशंकर प्रसाद

जब से भारतीय राजनीति में प्रतिद्वंद्विता का नया तरीक़ा शुरू हुआ है, राजनीति की शक्ल ही बदल गई है।

रघुवीर सहाय

राजनीति केवल कार्यकुशलता नहीं है।

रघुवीर सहाय

साहित्य में जो मुद्दा राजनीति के रास्ते से आता है, वह बहुत दिनों तक या स्थायी रूप से नहीं टिक पाता।

ज्ञानरंजन

राजनीति बुरी बात नहीं है। बुरी बात है राजनीति की कविता।

राजकमल चौधरी

राजनीति का कोलाहल केवल झूठ बोलता है।

शंख घोष

व्यवस्था नहीं है। व्यवस्था किसी दिन भी नहीं थी।

राजकमल चौधरी

अव्यवस्था का यथार्थ ही नहीं, व्यवस्था की कल्पना भी अपने आपमें अव्यवस्था ही है।

राजकमल चौधरी

राजनीति किसी भी ‘मूल्य’ और किसी भी ‘संस्कार’ पर विश्वास नहीं करती है।

राजकमल चौधरी

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