नामवर सिंह के अनुसार सगुण काव्य की मुख्य कमज़ोरी शास्त्र-सापेक्षता है, जो एक ओर निर्गुणधारा का विरोध करती है और दूसरी ओर रीतिकाव्य के उदय का कारण बनती है। नामवर सिंह के विवेचन से यह स्पष्ट नहीं होता कि सगुणधारा क्यों और कैसे शास्त्र-सापेक्ष है, इसलिए यह सवाल उठता है कि आख़िर सगुण काव्य में शास्त्र-सापेक्ष क्या है—सूर का वात्सल्य और श्रृंगार? मीरा का प्रेम और विद्रोह? या तुलसी का आत्मनिवेदन और आत्मसंघर्ष? क्या यह सब शास्त्र-सापेक्ष और लोक-विमुख है? इन सबका रीतिकाव्य से क्या लेना-देना?
हिंदी आलोचना में सबसे पहले आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुण संतों के विरुद्ध सगुण भक्तों को खड़ा किया। उन्होंने निर्गुण संतों को लोक-विरोधी और सगुण भक्तों को लोक-संग्रही घोषित किया।
निर्गुण और सगुण की दार्शनिक दृष्टियों के बीच कहीं-कहीं द्वंद्व है, लेकिन वह हर जगह लोक से शास्त्र का द्वंद्व नहीं है।
हिंदी के भक्तिकाव्य में अनेक स्वर है। सगुण भक्तों का स्वर निर्गुण संतों से भिन्न है।
भक्तिकाव्य का प्रेम, भक्ति आंदोलन की विभिन्न धाराओं को आपस में मिलाता है। वह वैष्णवों को सूफ़ियों से और निर्गुण संतों को सगुण भक्तों से जोड़ता है। कहीं वह सामाजिक मूल्य है, तो कहीं सामाजिक कर्त्तव्य।
सगुण भक्तिकाव्य में प्रेम का लीलात्मक स्वरूप होता है। इसके भाव और रूप को माधुर्य कहा जाता है और यही सांद्र माधुर्यभाव प्रेम में परिणत हो जाता है।
तुलसीदास उन सबकी उग्र आलोचना करते हैं, जो वेद तथा पुराण का विरोध करते हैं और श्रुतिसम्मत तथा पुराण-पोषित भक्तिपथ से अलग चलने की कोशिश करते हैं।
निर्गुण-मतवादियों का ईश्वर एक था, किंतु अब तुलसीदासजी के मनोजगत में परब्रह्म के निर्गुण-स्वरूप के बावजूद, सगुण ईश्वर ने सारा समाज और उसकी व्यवस्था—जो जातिवाद, वर्णाश्रम धर्म पर आधारित थी—उत्पन्न की।
-
संबंधित विषय : गजानन माधव मुक्तिबोधऔर 3 अन्य
सगुण भक्तों में सूर का स्वर, तुलसी से पृथक् है।
निर्गुण मत के विरुद्ध सगुण मत का प्रारंभिक प्रसार और विकास उच्चवंशियों में हुआ।
-
संबंधित विषय : गजानन माधव मुक्तिबोधऔर 2 अन्य
निर्गुण मत के विरुद्ध सगुण मत का संघर्ष, निम्न वर्गों के विरुद्ध—उच्चवंशीय संस्कारशील अभिरुचिवालों का संघर्ष था।